
कोलकाता. भारत और बांग्लादेश की टीमें आज से अपना पहला डे-नाइट टेस्ट खेलेंगी। यह 12वां डे-नाइट मैच होगा। अब तक हुए सभी 11 डे-नाइट मैचों में नतीजे निकले हैं। इसका एक बड़ा कारण इन टेस्टों में उपयोग की जाने वाली पिंक बॉल है, जो तेज गेंदबाजों के लिए ज्यादा मददगार साबित होती है। पिंक बॉल की चमक ज्यादा समय तक रहती है और रेड बॉल के मुकाबले स्विंग भी ज्यादा होतीहै। इस बॉल से टेस्ट के लिए विकेटों पर ज्यादा घास भी छोड़ी जाती है ताकि देर तक कलर की चमक बरकरार रखी जा सके। यह भी तेज गेंदबाजों को ज्यादा मदद पहुंचाती है। पिंक बॉल के फीचर्स को जानने के लिए और ईडन गार्डन्स पर इस मैच की तैयारियों का जायजा लेने के लिए दैनिक भास्कर एप ने भारत-बांग्लादेश टेस्ट के लिए पिंक बॉल बनाने वाली कंपनी एसजी के पारस आनंद और ईडन-गार्डन्स के पिच क्यूरेटर सुजान मुखर्जी से बातचीत की।
ईडन गार्डन्स का विकेट इस बार कैसा?
मुखर्जी ने बताया- विकेट पर घास थोड़ी ज्यादा छोड़ी गई है। पिंक बॉल के लिए घास को बड़ा रखा गया है। इससे तेज गेंदबाजों को फायदा रहेगा। ओस के कारण भी बॉल थोड़ी भारी रहेगी, जिससे तेज गेंदबाजों को ही मदद मिलेगी। बढ़ी हुई घास और ओस के कारण स्पिनर्स को थोड़ी परेशानी हो सकती है। हालांकि, मैच रात में 8 बजे तक ही खेला जाएगा, ऐसे में ओस का ज्यादा असर देखने को नहीं मिलेगा।
पिंक बॉल ज्यादा स्विंग होगी या कम?
एसजी के पारस आनंद ने कहा- रेड के मुकाबले पिंक बॉल शुरुआती ओवरों में ज्यादा स्विंग होती है। विराट कोहली भी यह कह चुके हैं कि यह टप्पा खाने के बाद ज्यादा घूमती है। पॉलिश ज्यादा होने के कारण यह देर तक नई रहती है, यानी लंबे समय तक इससे स्विंग हासिल की जा सकती है।
पिंक बॉल से रिवर्स स्विंग कितनी आसान, कितनी मुश्किल?
पारस ने कहा- तेज गेंदबाज रेड बॉल को बहुत आसानी से रिवर्स स्विंग करा लेते हैं। 30 से 40 ओवर के बीच रेड बॉल रिवर्स स्विंग होना शुरू हो जाती है, लेकिन पिंक बॉल के साथ ज्यादा समय लगेगा। पिंक बॉल पर हुई एक्स्ट्रा पॉलिश और विकेट पर बढ़ी हुई घास से यह ज्यादा समय तक नई रहती है। नई गेंद से स्विंग तो लंबे समय तक मिलती है, लेकिन रिवर्स स्विंग में थोड़ा ज्यादा समय लगता है।
तेज गेंदबाजों को मदद मिलती आई है, इस बार भी ऐसा ही रहेगा?
पारस के मुताबिक, "हां, क्योंकि पिंक बॉल के कलर को प्रोटेक्ट करने के लिए विकेट पर घास ज्यादा होती है। यह तेज गेंदबाजों को मदद करेगी ही और अब तक ऐसा होता आया है, लेकिन अगर विकेट पर घास ही नहीं है तो फिर स्पिनर्स को मदद मिलेगी।'

स्पिनर्स के लिए पिंक बॉल कैसी रहेगी?
‘‘विकेट पर ज्यादा घास है तो ज्यादा टर्न नहीं करेगी। स्पिनर्स के लिए यह थोड़ी परेशानी वाली बात है, लेकिन यह विकेट पर निर्भर है। शुरुआती 2 दिन घास है, लेकिन तीसरे दिन घास कम है तो तीसरे दिन विकेट पर टर्न मिलेगा। बॉल की सीम प्रनाउंस्ड है, स्पिनर्स ग्रिप अच्छे से पकड़ सकते हैं और बॉल को टर्न करा सकते हैं।’’
कलर का असर खिलाड़ियों के प्रदर्शन पर पड़ सकता है?
पारस ने कहा- खिलाड़ी अब तक रेड बॉल से खेलते आए हैं, जिसमें व्हाइट सीम (सिलाई) होती है। एक अच्छा बल्लेबाज सीम से रिलेट कर लेता है कि बॉल किस दिशा में घूमेगी। बल्लेबाजों को अब तक व्हाइट सीम की ही आदत है, लेकिन अब पिंक बॉल में ब्लैक सीम होगी, इसकी आदत डालना बल्लेबाज के लिए नई चुनौती होगी। शायद शुरुआत में तो इसकी सीम का असर होगा, लेकिन जैसे-जैसे बल्लेबाज को इससे खेलने की आदत हो जाएगी, वे बेहतर करते जाएंगे। बाकी पिंक कलर से ज्यादा परेशानी नहीं होगी।
विजिबिलिटी दिन और रात में एक जैसी रहेगी या कोई अंतर आएगा?
"पिंक बॉल की विजिबिलिटी दिन में रेड बॉल से भी बेहतर होती है, लेकिन जब सूरज ढल रहा होता है औरफ्लड लाइट धीरे-धीरे ग्राउंड को टेक ओवर करती है, तो उस दौरान सबसे कम लाइट होती है। यह करीब आधा घंटारहता है और इस दौरान पिंक बॉल की विजिबिलिटी थोड़ी कम रहेगी। यह समय बल्लेबाजों के लिए थोड़ा चुनौती भरा होगा।
एसजी पिंक बॉल पिछले 11 टेस्ट मैचों में उपयोग की गई पिंक बॉल से कितनी अलग?
पारस ने कहा- अभी तक सभी डे-नाइट टेस्ट इंडिया से बाहर हुए हैं। बाहर जिन पिंक बॉल से मैच हुए, वे उन मेजबान देशों की कंडीशन के हिसाब से बनीं। वहां के ग्राउंड्स अलग हैं, विकेट भी अलग हैं। हमारी पिंक बॉल भी उनकी पिंक बॉल से अलग ही होगी। हमारी पिंक बॉल भारतीय कंडीशन के हिसाब से बेस्ट हैं।
आपके फर्म ने पहली पिंक बॉल कब बनाई?
"हमने पहली पिंक बॉल 2016 में बनाई थी। राहुल द्रविड़ ने हम लोगों को इसे बनाने के लिए जोर दिया। राहुल हमेशा बोलते थे कि आप इसपर मेहनत कीजिए, क्योंकि ये गेम इंडिया में जरूर होगा। तीन साल से हमारा इस पर काम चल रहा है।'
टेस्ट के दौरान क्या फीडबैक मिले, क्या कुछ बदलाव भी किए गए?
पारस ने बताया, "जब पिंक बॉल का टेस्ट किया गया तो खिलाड़ियों का फीडबैक पॉजिटिव ही रहा। सबसे अहम फीडबैक यह मिला कि इस बॉल पर जो रंग किया जाता है, पिगमेंट किया जाता है। यह इसको ऐसा बना देता है कि इसका ऑफ द विकेट बिहेवियर व्हाइट बॉल की तरह होता है। व्हाइट बॉल की तरह ही पिंक बॉल भी रेड बॉल की तुलना में ज्यादा तेजी से आती है। इसकी विजिबिलिटी, हार्डनेस और बैट से लगने के बाद जो इसका ट्रैवल होता है, इन सभी फीचर्स को लेकर खिलाड़ी कम्फर्टेबल थे।
पिंक बॉल और रेड बॉल की मेकिंग में क्या अंतर है?
"दो बड़े अंतर है। रेड में व्हाइट सीम होता है और पिंक में ब्लैक सीम होता है। दूसरा यह कि रेड बॉल डाई करके बनती है। पिंक बॉल लेयर्स में होती है। पिंक बॉल में पहले कोट करते हैं। फिर उसके ऊपर एक और लेयर बिछाते हैं। फिर उसको ड्राय करते हैं। फिर उसके ऊपर क्लियर कोट बिछाते हैं। इसमें 6 दिन लगते हैं। रेड बॉल 2 से 3 दिन में तैयार हो जाती है, लेकिन पिंक बॉल बनने में 8 दिन लगते हैं।'
पिंक कलर ही क्यों?
डे-नाइट टेस्ट के लिए बॉल का कलर क्या होगा, इस पर आईसीसी और एमसीसी ने 10 साल तक टेस्ट किए। येलो, ऑरेंज के बाद पिंक कलर फाइनल हुआ। इसकी विजिबिलिटी बाकी कलर्स की तुलना में ज्यादा अच्छी थी। बैट्समैन, फील्डर, स्टेडियम में मौजूद लोग या टीवी पर देखने वाले दर्शक सभी के लिए पिंक कलर ज्यादा विजिबल था।
पिंक बॉल के दिखने का साइंस?
पिंक बॉल की विजिबिलटी रोशनी के हिसाब से बदलती है। दिन के वक्त पिंक बॉल हरी घास वाले मैदान और सूखी घास वाली पिच पर ज्यादा चमकदार दिखाई देती है। इसी तरह से रात के वक्त आर्टिफिशियल लाइट में भी ज्यादा चमकदार ही दिखाई देती है। लेकिन, शाम के वक्त चमक कम हो जाती है और मैदान व पिच से ही इसका रंग मिलने लगता है। ऐसे में इसकी विजिबिलिटी कम हो जाती है। ब्रिसबेन में खेले गए डे-नाइट टेस्ट की स्टडी से यही निष्कर्ष निकला है।

इंसान गतिशील चीजों का अंदाजा उनके रंग के अंतर के आधार पर करता है। देखने के दौरान गति का अंदाजा लगाने में मस्तिष्क का विशेष मैकेनिज्म काम करता है। इसमें दुविधा तब आती है, जब रोशनी में अंतर होता है। पिंक बॉल के साथ यह शाम के वक्त होता है। दिन में आसमान गेंद की तुलना में ज्यादा चमकदार होती है और रात के वक्त गेंद आसमान की तुलना में ज्यादा चमकदार होती है। रोशनी का अंतर शाम के वक्त होता है और इसी वक्त गेंद को देखने में थोड़ी दिक्कत हो सकती है।
सभी 11 मैचों के नतीजे निकले, 4 मैचों में तेज गेंदबाज मैन ऑफ द मैच रहे
पिछले डे-नाइट मैचों के आंकड़े बताते हैं कि पिंक बॉल बल्लेबाजों की तुलना में गेंदबाजों की मदद ज्यादा करती है। सभी 11 मैचों में नतीजे निकले हैं यानी हर मैच में एक टीम विपक्षी टीम के 20 विकेट लेने में कामयाब रही। 11 में से 6 टेस्ट मैच 5वें दिन तक भी नहीं पहुंचे। 2 टेस्ट चौथे दिन खत्म हुए। 3 टेस्ट तीसरे दिन खत्म हुए और एक टेस्ट दो दिन में ही खत्म हो गया। दिन के समय रेड बॉल से खेले गए मैचों में इस आंकड़े में बहुत अंतर है। इन टेस्टों में 67.5% मैचों में ही नतीजे निकले हैं। दिन में खेले गए टेस्ट मैचों में बॉलिंग एवरेज 32.09 है, यानी यहां गेंदबाजों को हर 32 रन के बाद एक विकेट मिला, जबकि डे-नाइट टेस्टों में बॉलिंग एवरेज 27 है, यानी इन मैचों में गेंदबाजों को हर 27 रन पर एक विकेट हासिल हुआ।
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