
अमेरिका. रोजाना 1.10 करोड़ से 5.50 करोड़ बैठकें होती हैं, जिन पर कंपनियों के बजट का 7 से 15 प्रतिशत तक खर्च होता है। हर सप्ताह मीटिंग में कर्मचारी करीब 6 घंटे खर्च करते हैं, जबकि मैनेजर लगभग 23 घंटे। मीटिंग के बाद थकान होना आम बात है। हाल में वैज्ञानिकों ने इस विषय को जांच के योग्य माना है। मनोवैज्ञानिक इसे ‘मीटिंग रिकवरी सिंड्रोम (एमआरएस) कहते हैं।
उटाह यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर जोसेफ ए. एलेन का कहना है कि कर्मचारी जब फिजूल की बैठकों में हिस्सा लेते हैं तो उनका दिमाग खर्च होता है। मीटिंग लंबी खिंचने पर सहनशक्ति घटने लगती है। ऐसे में मीटिंग सिर्फ व्याख्यान बनकर रह जाती है। बार-बार ऐसा होने से कर्मचारी अपना बेस्ट नहीं दे पाता। नॉर्थ कैरोलिना यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर क्लिफ स्कॉट का कहना है कि जब कर्मचारियों को ग्रुप में मीटिंग में बुलाया जाता है, तब भी वे उसे उबाऊ महसूस करते हैं। मीटिंग में शामिल लोगों का रुख निगेटिव है तो वे नियोजित मीटिंग को भी बेपटरी कर सकते हैं। ऐसे में लीडर को सभी को फिर से पटरी पर लाना कठिन होता है।
‘द सरप्राइजिंग साइंस ऑफ मीटिंग्स’ के लेखक स्टीवन रोगेलबर्ग का कहना है कि लगातार और लंबी चलने वाली बैठकें मीटिंग रिकवरी सिंड्रोम का शिकार बना सकती हैं। आपका टीम लीडर आपके कीमती समय का रक्षक होता है। यदि उसमें योग्यता है तो वह कम समय की मीटिंग द्वारा सहकर्मियों को इससे बचा सकता है। प्रोफेसर जोसेफ एलेन का कहना है कि मीटिंग्स का मतलब ‘कुछ हासिल करना ही है’, होना चाहिए। साथ ही एक बार में सिर्फ एक मीटिंग। कुछ फैसले लेने और रणनीति बनाने के लिए बैठकें जरूरी हैं, लेकिन इनका लंबा खिंचना तनाव पैदा करता है, साथ ही आपका दिमाग बेहतर सोचने की क्षमता खोने लगता है। एसी मीटिंग्स में न सिर्फ अरबों डॉलर की बर्बादी होती है, बल्कि फालतू की बैठकों के बाद कर्मचारी दोबारा काम पर ध्यान लगाने में समय बर्बाद करते हैं।
पेनसिल्वेनिया के पिट्सबर्ग में पीजीएचआर कंसल्टिंग की संस्थापक और प्रेसिडेंट हार्टमैन का कहना है कि उनकी एचआर की पिछली नौकरी में मैनेजर इतनी बैठकें करते थे कि वहां लोगों को नींद आ जाती थी। रोजाना कई घंटे की मीटिंग बाद उन्हें अपना काम निपटाने के लिए ओवरटाइम करना पड़ता था।
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