
मेरा जन्म 11 नवंबर 1943 को मध्यप्रदेश के बड़वानी गांव में एक साधारण परिवार में हुआ। पिता पुरुषोत्तम काकोडकर मूल रूप से गोवा के थे, उन्होंने काशी से ‘शास्त्री’ की पदवी ली थी। इसके बाद वे वर्धा स्थित गांधीजी के सेवा आश्रम चले गए। मां कमला मूल रूप से बड़वानी की थीं। बाद में वे भी गांधीजी का सहयोग करने के लिए वर्धा आश्रम चली गईं। इसी आश्रम में मेरे पिता-मां ने एक-दूसरे को जाना और यहीं विवाह कर लिया। भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रिय भागीदारी के लिए पिता 1942 में मुंबई आ गए। इसी दौरान 1943 में मेरा जन्म हुआ। मेरे जन्म बाद माता-पिता गोवा आ गए, क्योंकि उन्हें गोवा मुक्ति आंदोलन का कार्यकर्ता बनाया गया था। 1946 पिता को गिरफ्तार कर पुर्तगाल ले जाया गया। इसके बाद एक-एक कर मुश्किलें आने लगीं। घर चलाने के लिए मां ने एक स्कूल ज्वाइन कर लिया, कुछ समय बाद उन्हें खरगोन (मप्र) भेज दिया गया। मेरी पढ़ाई में कमी न रहे, इसका मां बहुत ध्यान रखती थीं। गणित, विज्ञान मेरे प्रिय विषय रहे। मैट्रिक के बाद मैं मुंबई चला गया, इसी बीच पिता को छोड़ दिया। उस वक्त महाराष्ट्र के सभी कॉलेजों में प्रवेश प्रक्रियाएं पूरी हो चुकी थीं और मेरा रिजल्ट मप्र में आना बाकी था। थक-हारकर मैं रूपारेल कॉलेज में डॉ. भिडे से मिला और निवेदन किया कि मैं प्रथम श्रेणी में पास होने वाला हूं, मुझे एडमिशन दे दीजिए। वे सुनते रहे, फिर पूछा- इतना आत्मविश्वास है? फिर कहा- ठीक है, यदि प्रथम श्रेणी नहीं आई तो प्रवेश रद्द कर दूंगा। मुझे प्रथम श्रेणी मिली और मेरा एडमिशन पक्का हो गया। आर्थिक स्थिति खराब थी, ट्यूशन पढ़ नहीं सकता था। हमारा खर्च मां के वेतन से बमुश्किल चलता था। मुझे इंजीनियरिंग के लिए वीरमाता जीजाबाई टेक्नोलॉजिकल इंस्टीट्यूट (वीजेटीआई) में प्रवेश मिल गया। आंदोलन में व्यस्त पिता का हमें सहारा नहीं था। कई बार तो घर का किराया देने की स्थिति भी नहीं रहती थी। इसी बीच मां को टीबी हो गया। फिर भी वे शारीरिक, मानसिक, आर्थिक मोर्चे पर संघर्ष करती रहीं। मुझे पता नहीं था कि मेरे जीवन की दिशा अब बदलने वाली है।
मुझे एटॉमिक एनर्जी इस्टैब्लिशमेंट ट्रॉमवे (अब BARC) में इंटरव्यू के लिए बुलाया और चुन लिया गया। 1963 में कनाडा के सहयोग से अप्सरा परमाणु रिएक्टर की स्थापना टीम में मैं रहा। साथ ही रिएक्टर इंजीनियर, रिएक्टर कंट्रोलर और हीट ट्रांस्फर की विशेष पढ़ाई-ट्रेनिंग की और प्रथम श्रेणी में पास हुआ। ऑर्डिनेंस फैक्ट्री के नोजल्स सिरेमिक कोटिंग, फिर श्रीहरिकोटा के रॉकेट लांचिंग की कोटिंग जैसे काम मैंने किए। एक्सपेरिमेंटल स्ट्रेस एनॉलिसिस विषय की मास्टर डिग्री के लिए मैं इंग्लैंड रवाना हुआ। इसके लिए मुझे इंटरनेशनल परमाणु ऊर्जा एजेंसी की ओर से फेलोशिप मिली। वैज्ञानिक बनने के लिए नई तकनीक का अनुभव लेकर मैं स्वदेश लौटा। अज हमारे 28 परमाणु रिएक्टर कार्यरत हैं, लेकिन 1950 के आसपास विश्वस्तर पर परमाणु ज्ञान हमारे लिए नया था। (हमने थोरियम-यूरेनियम आधारित सुरक्षित आणविक ऊर्जा टेक्नोलॉजी पर जमकर शोध किए।) देश में पहली अणुभट्ठी ‘अप्सरा’ 4 अगस्त 1956 को शुरू हुई थी, वहीं 10 जुलाई 1960 को सायरस (कैनेडियन इंडियन रिएक्टर यूरेनियम सिस्टम) भट्ठी शुरू हुई। 1974 में ध्रुव भट्ठी पर काम करने लगे। इसकी पूरी डिजाइन स्वदेशी यानी BARC की थी। यहां मुझे पहला मौका मिला और हमने 1985 में इसे शुरू कर दिया। इस भट्ठी से 500 मेगावॉट बिजली बनना संभव हुआ। इसके लिए फास्ट ब्रीडर रिएक्टर और ईंधन के रूप में थोरियम के उपयोग के साथ तीन स्तरों पर काम करने का मुझे मौका मिला। हमारे देश में थोरियम बहुतायत में है, लेकिन यूरेनियम के लिए अन्य देशों पर निर्भर रहना पड़ता है। भविष्य में टेक्नोलॉजी आधारित बिजलीघर किस रूप में होंगे, इसकी प्लानिंग की जिम्मेदारी भी हमारे ऊपर थी। थोरियम आधारित रिएक्टर स्थापित करना चुनौतीपूर्ण था। हम जिद मानकर इस काम में जुट गए और तमिलनाडु में पहला ‘कामिनी’ रिएक्टर शुरू कर दिया। अणुभट्ठी बिगड़ने पर उसे सुधारने की चुनौतीपूर्ण तकनीक भी हमने पा ली। कलपक्कम अणुभट्ठी सुधारना हमारे लिए गर्व की बात थी।
वर्ष 2000 तक मैं परमाणु अनुसंधान केंद्र का निदेशक बना, साथ ही विज्ञान-प्रौद्योगिकी के लिए केंद्र सरकार में सचिव भी रहा। 1974 में पहला परमाणु परीक्षण, 11 व 13 मई 1998 को बुद्ध फिर हंसे...। इन प्रयोगों से विश्व को पता चला कि हम अपने दम पर परमाणु संपन्न राष्ट्र बने हैं। इसी समय बीएआरसी का संचालक होने के साथ मैं एक डिवाइस पर काम कर रहा था तभी पिता का निधन हो गया, लेकिन मुझे तुरंत पोखरण लौटना पड़ा। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खलबल हो रही थी कि भारत में कुछ तो पक रहा है और हमने पोखरण परीक्षण कर दुनिया को चौंका दिया। परमाणु क्षेत्र में इतना काम किया है कि सभी का उल्लेख यहां करना संभव नहीं। 2009 में सेवानिवृत्त हुआ तो लगा शरीर को अब कुछ आराम मिलेगा, लेकिन कई शैक्षणिक, ग्रामीण विकास की, कृषि क्षेत्र, आईआईटी की समितियों का पदाधिकारी बना दिया गया, तब से सिर्फ ही कर रहा हूं। जब तक शरीर साथ दे रहा है, मैं ग्रामीण भाग में खूब काम करना चाहता हूं। अपने देश के सबसे पड़े सम्मान में 1998 में पद्मश्री, 1999 में पद्म भूषण तथा 2009 को पद्म विभूषण मुझे दिए गए। इसके अलावा देश-विदेश से इतने पुरस्कार मिले हैं कि अब गिनती याद नहीं। देश का हर एक छात्र वह सब कर सकता है जो मैंने किया। जरूरत है खुद को परिस्थिति में ढालकर आगे बढ़ने की। -केंद्रीय परमाणु ऊर्जा आयोग के पूर्व अध्यक्षअनिल काकोडकर(जैसा उन्होंने दिव्य मराठी पुणे की जयश्री बोकिल को बताया)
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