
फिनलैंड की प्रधानमंत्री सना मरीन मात्र 34 साल की हैं। इतनी कम उम्र में प्रधानमंत्री बनने वाली वे दुनिया की एक मात्र शख्स हैं। 19 सदस्यों वाली उनकी कैबिनेट में 12 महत्वपूर्ण मंत्रालय महिलाओं के पास हैं। जब उनसे बतौर ‘महिला प्रधानमंत्री’ बात की जाती है तो वे असहज हो जाती हैं। उनका मानना है कि लैंगिक और धार्मिक भेदभाव इंसानियत की राह में सबसे बड़ा रोड़ा हैं।अमेरिका में भास्कर के प्रतिनिधि सिद्धार्थ राजहंस ने फिनलैंड जाकर उनसे विशेष बातचीत की, पढ़िए सना मरीन की जुबानी...
मेरा मानना है कि लीडरशिप का महिला या पुरुष हाेने से कोई लेना-देना नहीं है। आश्चर्य होता है और अफसोस भी कि दुनिया इस बात से चकित है कि फिनलैंड की बागडोर एक महिला के हाथों में है। लोगों को महिलाओं के आगे बढ़ने या उनके नेतृत्व करने पर हैरान होने की कोई जरूरत नहीं है। शायद लिंग-भेद की मानसिकता ही ऐसे प्रश्न खड़े करती है। मेरी उम्र और मेरा महिला होना कोई मुद्दा ही नहीं है। मैं यहां मतदाताओं के विश्वास की वजह से हूं। मैं यहां मुद्दों को सुलझाने के लिए हूं। जब आप तय मापदंडों को तोड़ते हैं और कुछ अलग करते हैं तो स्वाभाविक है कि लोग आप पर ध्यान देने लगते हैं। वास्तव मेंमैं तो ये मानती हूं कि दुनियाभर में उम्रदराज नेता, नई पीढ़ी की समस्याओं जैसे-जलवायु संकट और नए उद्योगों के बारे में उदासीन हैं। ये जेनरेशन गैप है और यह राजनीतिक स्तर पर आज और बड़ा नजर आता है। इसलिए यह जरूरी है कि नई पीढ़ी आगे आए और जिम्मेदारी ले। यही वह विचार है, जिसने मुझे राजनीति में आने और नेतृत्व लेने के लिए प्रेरित किया है।
मेरा यह भी मानना है कि महिलाओं में उन मुद्दों को लेकर स्वाभाविक रूप से अधिक संवेदनशीलता है, जिसका सामना दुनिया कर रही है। इसलिए हम बेहतर काम करने के लिए हर तरह से तैयार हैं। यही वजह है कि मेरी कैबिनेट में भी महिला मंत्रियों की संख्या ज्यादा है। मेरी कैबिनेट के लिए, लैंगिक समानता और अधिकार काफी अहम हैं। सुनियोजित ढंग से सामाजिक सोच में बदलाव लाकर और नीतियां बदलकर लैंगिक समानता लाई जा सकती है। मसलन, आज भी लोग मुझसे बतौर ‘महिला प्रधानमंत्री’ बात करते हैं, न कि प्रधानमंत्री के तौर पर। इससे समाज की सोच पता चलती है। हम यह क्यों नहीं स्वीकार कर पा रहे हैं कि महिला भी बराबर है, बल्कि मुद्दों को डील करने में ज्यादा सक्षम है। इस मामले में फिनलैंड और भारत उदाहरण स्थापित कर सकते हैं।
भारत में 40 साल से कम उम्र की आबादी ज्यादा है। निश्चित रूप से इतनी ही हिस्सेदारी महिलाओं की भी है। भारत को अपनी इस युवा आबादी के अनुसार नीतियों में बदलाव लाना होगा। तभी लिंग, यौन या धार्मिक भेदभाव रुकेगा। इसके अलावा नए युग में काम और उत्पादकता के मापदंड भी बदल रहे हैं। उदाहरण के तौर पर देर तक ऑफिस में रुकना और कड़ी मेहनत करना एक विशेष गुण माना जाता रहा है। लेकिन देखने वाली बात यह है कि आपकी कड़ी मेहनत का परिणाम क्या निकला है, उससे हासिल क्या हुआ है। मौजूदा समय में तो कम से कम इनपुट में ज्यादा से ज्यादा आउटपुट की आवश्यकता है। इसीलिए हमने हफ्ते में 24 घंटे काम करने की नीति पर काम शुरू किया है। इससे लोग परिवार को समय दे पाएंगे। काम और जीवन में यह संतुलन हमारा अगला कदम है। मैं भी परिवार को ज्यादा वक्त देना चाहूंगी। काम के घंटों को मानक नहीं बनाऊंगी।
मैं कर्मचारियों की उत्पादकता बढ़ाकर राष्ट्रीय लक्ष्यों को हासिल करने के लिए लचीली कार्य संस्कृति की पैरवी करती हूं। क्योंकिखुशी और उत्पादकता में गहरा संबंध है। अर्थव्यवस्था के अनगिनत मापदंडों में हैप्पीनेस इंडेक्स, नेशनल इंडेक्स जितना ही महत्वपूर्ण है। मैं इस फैक्ट को मानती हूं और नई सोच रखती हूं। क्योंकि मेरी परवरिश अलग रही है। मेरे माता-पिता दोनों महिलाएं रही हैं और दोनों ने मुझे हमेशा अपनी पसंद का काम करने के लिए प्रेरित किया है। मुझे याद नहीं कि मेरे परिवार ने लड़की होने के नाते मुझसे कभी भेदभाव किया हो। जब मैं बेकरी में हफ्ते के 20 यूरो के लिए काम करती थी, तब भी मां मुझे प्रोत्साहित करती थीं। मैं हमेशा अपनी अपरंपरागत पहचान और अपने जेंडर पर गर्व करती हूं। मैं हमेशा इसके साथ खड़ी रहूंगी। मुझे लगता है कि इसी तरह हम आलोचनाओं का सामना कर सकते हैं और पॉजिटिव चेंज भी ला सकते हैं। आप जो सोचते हैं, वही सही है- इसके साथ हमेशा खड़े रहिए। मैं ऐसी ही हूं। मैं कभी डरी नहीं। बेहद जिद्दी भी हूं। मैं जवाब में ‘न’ नहीं सुनती। मुझे लगता है कि अच्छे बदलाव ऐसे ही आते हैं।
भारत में अपार संभावनाएं
भारत में बहुत संभावनाएं हैं। भारतीय संस्कृति में पूरी दुनिया को एक परिवार माना गया है। मैं वसुधैव कुटुम्बकम के विचार को बहुत अच्छी तरह से तो नहीं जानती, लेकिन भारत के मूल्य और संस्कृति सम्मान योग्य है। मुझे लगता है कि भारत न सिर्फ ग्लोबल सुपर पावर है, बल्कि वह असमानता और क्लाइमेट चेंज जैसे नए मुद्दों पर विश्व का नेतृत्व कर सकता है।
हमें स्कूलों में जीवन का मानवीय पक्ष पढ़ाने की जरूरत है
अगर मुझे स्कूली पाठ्यक्रम बनाने का मौका मिले तो मैं इसमें उन बातों को शामिल करूंगी जो युवाओं के लिए जरूरी हैं। पाठ्यक्रम में समान अधिकार और उसकी विस्तृत परिभाषा होनी चाहिए। वैश्विक मुद्दे, हमारे समाज-संस्कृति में आया परिवर्तन और बदलते आर्थिक मुद्दों को शामिल करूंगी। हमारे आसपास हो रहे तेज सामाजिक-आर्थिक बदलाव के साथ ही जीवन का मानवीय पक्ष पढ़ाने-समझाने की सबसे ज्यादा जरूरत है, क्योंकि यही आधुनिक समाज के मजबूत स्तंभ हैं।
मेरी बेटी मुझे सजग और परिपक्व इंसान बनाती है
मेरी बेटी का जन्म मेरे लिए जिंदगी का सबसे अहम और खुशनुमा वाकया है। मैं कामकाजी मां हूं और एमा बचपन से ही इसका सामना कर रही है। लेकिन मुझे ऐसा महसूस होता है कि जैसे इस नन्ही बच्ची ने मेरे कामकाजी जीवन के हिसाब से खुद को ढाल लिया हैै। यह बात मुझे उस खास ‘अहा’ पल का अहसास कराती है। मैं बेहद साधारण व अपरंपरागत माहौल में पली-बढ़ी हूं। गंभीर विषयों पर मैं बचपन से ही मुखर रही हूं। और एक मां के तौर पर भी मैं इन मूल्यों को साथ लेकर चलती हूं। मैंने अपने इंस्टाग्राम पर बेबी बंप और स्तनपान की तस्वीरें भी पोस्ट की हैं। ये सब चीजें मातृत्व के सबसे अहम और प्राकृतिक पहलू हैं। मैं मां बनकर बेहद खुश हूं और उन चीजों को भी आगे बढ़कर गले लगा रही हूं, जिन पर लोग चर्चा करने में सामान्य तौर पर संकोच करते रहे हैं। इस तरह मेरी बेटी मुझे सजग और परिपक्व इंसान बना रही है। ये नई सोच ही है कि मैं और मेरे पति मार्कस बेटी की परवरिश में समान भागीदारी निभाते हैं। वे बेहद समझदार हैं। उन्होंने एमा के जन्म के समय पितृत्व अवकाश लेकर एक बेंचमार्क सेट किया है। आखिरकार एक बच्चे के प्रति माता-पिता, दोनों की समान जिम्मेदारी है। मैं हमेशा उनसे सलाह लेती हूं, न सिर्फ रोजमर्रा के मुद्दों पर बल्कि अपनी नीतियों पर भी। मैं चाहती हूं कि मेरी बेटी भी उन मूल्यों को आगे ले जाए, जिनके साथ मैं पली और बड़ी हुई हूं।
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