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गाजीपुर की जेल में उपवास करने वाले 10 नौजवानों का मकसद बहुसंख्यक समुदाय को तंगदिली से आजाद करना था

लखनऊ.क्यों हमें गाजीपुर की जेल में उपवास करने वाले दस नौजवानों की फिक्र करनी चाहिए थी? क्या इस उपवास की यह कहकर अनदेखी कर दें या उसे छोटा बता दें कि ये अपनी रिहाई ही तो चाहते थे, इससे हमें क्या लेना-देना! यह भी वे हमारे लिए या देश के लिए क्या इतने महत्वपूर्ण हैं कि हम उन पर वक्त जाया करें! यह कहकर इस सवाल से पल्ला झाड़ लेने के पहले हमें जानना भी चाहिए कि ये नौजवान कौन हैं और क्यों जेल में थे?

मनीष इन्हीं में से एक हैं। जब उन्होंने बताया कि वे अपने मित्रों के साथ पैदल चलना चाहते हैं। वे रास्ते में चलते हुए देश की हालत पर, देश में हमें अपने अलावा औरों की चिंता क्यों करनी चाहिए, क्यों एक-दूसरे के साथ प्रेम और मोहब्बत से रहने की जरूरत है, इस पर रास्ते में लोगों से बातचीत करते हुए चलना चाहते हैं। इस पर मैंने अपना शक जाहिर किया कि कहीं रास्ते में उन पर हमला न हो, कहीं उन्हें बीच में ही सरकार रोक न दे, आगे बढ़ने से रोकने के लिए गिरफ्तार न कर ले! यह आशंका मनीष, प्रदीपिका, मुरारी, अतुल, रविंद्र, शेषनारायण, अनंत, नीरज, राज, अभिषेक को नहीं थी, ऐसा नहीं। फिर भी उन्होंने चलने का ही फैसला किया।

10 लोग देश के किसी हिस्से में पैदल चल रहे हैं। देश के दो भौगोलिक बिंदुओं को कदम-कदम कर एक रेखा बनाते हुए जोड़ने की कोशिश कर रहे हैं। यह आज के भारत के लिए खबर होनी चाहिए थी, लेकिन उनके 200 किलोमीटर चल लेने तक किसी की दिलचस्पी उनमें नहीं पैदा हुई। अपने चलने को मीडिया के लिए आकर्षक बनाने को उन्होंने अलग से कुछ किया भी नहीं।

इरादा पहले शुरू से शुरू करने का था। चंपारण के भीतरहवां आश्रम से। यह भारत में गांधी की यात्रा का एक आरंभ बिंदु है। लेकिन विजय महाजन ने ठीक ही सुझाव दिया, शुरू करो वहां से जो गांधी के रुक जाने का प्रतीक है। चौरी चौरा। गांधी न सिर्फ इस जगह रुक गए थे, बल्कि अपने कदम पीछे खींच लिए थे।

गांधी के लिए रुकना, पीछे हटना कोई शर्मिंदगी की बात न थी। असल बात थी उसूल का कायम रहना, जो अंग्रेजों से आजादी से भी अधिक प्यारा था। वह था अहिंसा का उसूल। चौरी चौरा में अंग्रेजी हुकूमत के थाने और पुलिस पर हमला हुआ तो गांधी ने अपने लोगों को उस अपराध के आरोप से बचाने के लिए कोई बहाना नहीं बनाया। अपने नेतृत्व की कमी को कबूल किया, अहिंसा के लिए वाजिब तैयारी की कमी को भी कबूल किया। इसकी परवाह किए बिना कि उनकी इस आत्मस्वीकृति से अंग्रेजों को उनके आंदोलन को लांछित करने का मौका मिल जाएगा।

हमारे नौजवानों ने उनकी उम्र के बारे में जो आम खयाल है, उससे अलग जाकर चौरी चौरा को आरंभ बिंदु बनाना तय किया। चौरी चौरा उत्तर प्रदेश में है। अंग्रेजों के नहीं भारतीयों के राज के उत्तर प्रदेश में। वैसे भारतीयों के जो भारत को अपनी मिल्कियत समझ बैठे हैं और जिनकी निगाह में भारतीय जन उनकी प्रजा है। यह निर्णय कैसे लिया गया, प्रदीपिका सारस्वत के सत्याग्रह में प्रकाशित उनके इस लेख से मालूम होगा।

इसमें लिखा गया- 20 दिसंबर 2019 को उत्तर प्रदेश में सीएए-एनआरसी के प्रदर्शनों के दौरान पुलिस की हिंसा और गिरफ्तारियों के बाद कुछ विश्वविद्यालयों के छात्र-छात्राओं ने मिलकर कई फैक्ट-फाइंडिंग टीमें बनाई थीं। इन टीमों ने शहर-शहर जाकर पीड़ितों से बातचीत की और सच पता करने की कोशिश की। इन प्रदर्शनों के दौरान कुल 23 मौतें हुई थीं और इनमें मरने वालों में से कुछ विवाहित भी थे, जिनमें से चार की पत्नियां मां बनने वाली थीं।

इनके सामने अगला सवाल था कि अब क्या किया जाए। हिंसा की कहानियां इतनी मार्मिक थीं कि उन्हें सुनने के बाद वापस आम जिंदगी में लौट जाना आसान नहीं था। तय किया गया कि हम उत्तर प्रदेश जाएंगे, लोगों से मिलेंगे और उन्हें बताएंगे कि हमें हिंदू-मुसलमान में बंटने से बचना होगा। इस तरह नागरिक सत्याग्रह पदयात्रा का विचार बना। जब मुझे इस यात्रा के बारे में पता चला तो मैंने भी इसमें शामिल होने का निर्णय कर लिया। प्रदीपिका इस यात्रा के नियम बताती हैं, जो नौजवानों के लिहाज से सख्त हैं। लेकिन यात्रा से उन्हें जो मिलता है, उसके लिए इतना संयम किया जा सकता है।

प्रदीपिका इस अनुभव के बारे में लिखती हैं- कुछ किलोमीटर बाद हम एक चाय की दुकान पर रुकते हैं। लोग पूछते हैं कि इस यात्रा का उद्देश्य क्या है, आपकी मांग क्या है? जब उन्हें बताया जाता है कि यह बस जागरूकता और सौहार्द्र बढ़ाने के लिए है तो वे हैरान रह जाते हैं। उनके चेहरे पर खुशी और हैरानी एक साथ दिखती है। वे कहते हैं कि यह जरूरी है। एक बूढ़े बाबा कहते हैं कि यह तो बड़ी निस्वार्थ यात्रा है। शाम का सूरज पेड़ों के झुरमुट के पीछे डूब जाता है। मैं जगह-जगह चूल्हों से उठता धुआं देखती हूं। इस धुएं के धीरे-धीरे उठने में एक सुकून है। मवेशियों को चारा डाल दिया गया है, या कूटा जा रहा है।

मैं खुद मनीष से बीच-बीच में फोन करके हालचाल लेता रहता हूं। मालूम होता है कि पुलिस अब उन पर निगरानी रखने लगी है। लगातार पूछताछ होने लगी है। गांववालों को डराया भी जा रहा है। आखिरी बात के वक्त पुलिसकर्मियों ने इन्हें घेर लिया था।

अगले दिन फोन नहीं उठा तो दूसरे मित्रों से पूछा। मालूम हुआ, गाजीपुर में पुलिस ने आगे बढ़ने से रोक दिया। फिर शांति भंग होने की आशंका के कारण जेल में डाल दिया गया। एडीएम का आदेश हर किसी को पढ़ना चाहिए। इससे मालूम होगा कि भारत किस किस्म का जनतंत्र बनता जा रहा है। उनका आदेश है कि चूंकि ये सब बिना उनकी अनुमति के पद यात्रा कर रहे हैं, ये सीएए और एनआरसी के बारे में लोगों को गुमराह कर रहे हैं। इससे वैमनस्य फैल सकता है और संज्ञेय अपराध घटित हो सकता है। इस वजह से इन्हें गिरफ्तार किया गया। प्रशासन और पुलिस इन्हें जनता से दूर रखने को इस कदर आमादा थे कि हरेक से ढाई लाख रुपए के मुचलके के अलावा दो राजपत्रित कर्मचारियों से इनके सभ्य आचरण की गारंटी भी मांगी जा रही थी।

ये सब जेल में थे। प्रदीपिका के लेख से कोई भी इनकी ईमानदार मंशा समझ सकता है, लेकिन उत्तर प्रदेश की पुलिस नहीं। उत्तर प्रदेश पुलिस ने ही शायर इमरान प्रतापगढ़ी से एक करोड़ रुपए से ऊपर का का हर्जाना मांगा है। तर्क यह है कि उन्होंने जगह-जगह सरकार विरोधी भाषण दिए, जिससे कानून-व्यवस्था बिगड़ने का खतरा पैदा हुआ और पुलिस बंदोबस्त बढ़ाना पड़ा। इस पर सरकार का जो खर्चा हुआ, वह प्रतापगढ़ी से मांगा जा रहा है।

ये पंक्तियां मैं गोवा से लौटते हुए लिख रहा हूं। गोवा में नागरिकता के नए कानून पर बात करने को बुलाया गया था। आयोजकों को दो बार जगह बदलनी पड़ी। पुलिस का दबाव हर जगह और यह कोशिश कि सभा हो ही न सके।

यह किस्सा सिर्फ उन राज्यों का नहीं है, जो भाजपा शासित हैं। बिहार में कन्हैया की यात्रा को मोतिहारी का प्रशासन निकलने ही नहीं दे रहा था। वह तो नीतीश कुमार को मालूम हो गया और उन्होंने जिला प्रशासन को डांटा तब यात्रा निकल पाई। रास्ते में जगह-जगह कन्हैया पर हमले हो रहे हैं। आप वीडियो देखिए, मालूम होता है, पुलिस हमलावरों को ही सुरक्षा दे रही है।

यही रवैया राजस्थान, महाराष्ट्र, झारखंड, मध्य प्रदेश, तमिलनाडु आदि का है। महाराष्ट्र में और राजस्थान में तो उच्च न्यायालयों को फटकार लगानी पड़ी कि नागरिकों के विरोध व्यक्त करने के अधिकार पर इस तरह हमला नहीं किया जा सकता। 2018 में 2 अप्रैल को दलितों के बंद के दौरान हर जगह पुलिस ने जो हिंसा की, अब तक उस पर ठीक से बात नहीं हुई है।

पूरे भारत में पुलिस ने खुद को भाजपा की समझ से एकमेक कर लिया है। उसके जेहन में पहले से मौजूद अल्पसंख्यक विरोध से मिलकर यह घातक हो उठा है। गाजीपुर में नौजवान पदयात्रियों के साथ जो हुआ, उसकी गंभीरता हम सबको ही समझनी चाहिए। हम सब ऐसे ही नौजवानों की तलाश में हैं। जिनके मन में दूसरों के लिए दर्द हो, जो समाज में नए रिश्ते बनाने की मेहनत कर सकें। आज वे अगर जेल गए तो सिर्फ इसलिए कि भारत के बहुसंख्यक समुदाय को तंगदिली से आजाद कर सकें।



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The aim of the 10 young men who fasted in the Ghazipur jail was to liberate the majority community with impunity.


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