आजादी के बाद से अब तक अगर हम चीन के साथ संबंध देखें तो ऐसा क्या है कि जिसके आधार पर हम उसे रहस्यमय मानेंगे? 1962 में उसने दो मोर्चों पर हम पर जो हमला किया वह हमारे नेताओं के लिए चौंकाने वाला रहा होगा, लेकिन ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि वे भ्रम के शिकार थे।
उसके बाद से 1965 में पाकिस्तान के साथ हमारी 22 दिन की जंग में चीन की ‘उनके चुराए गए याक और भेड़ें लौटा दो’ की धमकी से लेकर इस साल लद्दाख सीमा पर उसकी तथाकथित ‘चौंकाने वाली’ हरकतों तक, भारत के मामले में चीन का हर कदम यही बताता है कि वह रहस्यमय तो बिल्कुल नहीं रहा है, बल्कि उसके हर कदम का पहले से अनुमान लगाया जा सकता है।
नाथु ला (सिक्किम) में 1967 में की गई चोट शायद भारत की प्रतिक्रिया देखने के लिए की गई थी। तब उसे लग रहा था कि 1962 और 1965 की लड़ाई, अकालों, अनाज के लिए विदेशी मदद पर निर्भर रहने, राजनीतिक अस्थिरता और इंदिरा गांधी का कद घटने से भारत अस्थिर हो गया होगा।
लेकिन भारत ने जो जवाब दिया, उससे उसने सबक सीखा और 53 वर्षों तक शांत रहा। क्या इसे चीन के रहस्यमय होने का सबूत मानेंगे? नहीं। उसने हमारी जांच-पड़ताल की और उसे करारा जवाब मिला।
फिर अलग-अलग समय पर विभिन्न तरीकों से गतिविधि करते हुए वह इंतज़ार करता रहा। 1960 के आसपास से अब तक के छह दशकों में चीन भारत के साथ रिश्तों को मर्जी से चलाता रहा है। उसने 1962 तक वो हासिल कर लिया था, जो चाहता था।
सच्चाई यह है कि लद्दाख में सामरिक रूप से जरूरी कुछ छोटे-छोटे टुकड़ों को छोड़कर, उसने लगभग पूरा कब्जा कर लिया था। उसने पूरी तरह से भारत के नियंत्रण में रहे अरुणाचल प्रदेश पर भी मालिकाना हक जताया, लेकिन सैन्य चुनौती नहीं दी। इस क्षेत्र और पूरी दुनिया में सत्ता समीकरण में बदलावों के आधार पर उसके तेवर बदलते रहे।
1986-87 में जब उसने देखा कि राजीव गांधी ने रक्षा बजट को अभूतपूर्व रूप से जीडीपी का 4% कर दिया तो उसने फिर वांगदुंग-सुमदोरोंग चू (अरुणाचल) में हमें आजमाया। उसे फिर करारा जवाब मिला और वह पीछे हट गया। इससे फिर यह सबक मिला कि वह बेवजह गोलियां नहीं चलाएगा, तब तक नहीं जब तक उसे आसानी से जीतने का भरोसा न हो। इससे पता चलता है कि उसकी हरकतों का अनुमान लगा सकते हैं।
आज के संदर्भ में दो हस्तियों से हुई बातचीत प्रासंगिक लगती है।
डॉ. मनमोहन सिंह जब प्रधानमंत्री थे, उन्होंने कहा था कि चीन भारत को हमेशा अस्थिर रखने के लिए पाकिस्तान को मोहरा बना रहा है। हमारा भविष्य इस पर निर्भर है कि हम इस ‘त्रिभुजन’ का तोड़ निकालें। उनका सुझाव यह था कि हम पाकिस्तान से अच्छे रिश्ते बनाने की कोशिश करें।
लेकिन आज पाकिस्तान से दुश्मनी मोदी-भाजपा राजनीति का केंद्रीय तत्व बन गया है। यह पाकिस्तान से ज्यादा चीन से सुलह को तरजीह देगी। वैसे, लक्ष्य त्रिभुजन से बचना ही है। दूसरी बात वाजपेयी के साथ हुई थी, जिन्होंने चीन की वार्ता शैली का खुलासा किया था, ‘देखिए, आप-हम वार्ता कर रहे हैं। दोनों समाधान चाहते हैं। मैं कहूंगा कि थोड़ी रियायत कीजिए, आप मना कर देंगे। मैं कहूंगा, कुछ कम रियायत कर दीजिए, आप फिर मना कर देंगे। अंततः आप मान जाएंगे और उस थोड़े को गंवा देंगे। लेकिन चीन कभी ऐसा नहीं करेगा।’
ये दोनों नेता यही स्पष्ट करते हैं कि चीन अपनी बात पर कायम रहता है और उसका अनुमान लगाया जा सकता है। इसलिए उसने लद्दाख में जो किया है, उसका अनुमान हमें पिछले साल 5 अगस्त को ही लग जाना चाहिए था, जब हमने जम्मू-कश्मीर में भारी बदलाव किए थे। हमें मालूम था कि वहां के भौगोलिक पेंच में एक तीसरा पक्ष चीन भी है।
गृह मंत्री अमित शाह ने संसद में यह बयान देकर कोई भी रास्ता नहीं छोड़ा कि ‘हम अपनी जान की बाज़ी लगाकर भी अक्साई चीन को हासिल करके रहेंगे।’ इसके बाद नए नक्शे आए, ‘सीपीईसी’ (चीन-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर) को भारतीय क्षेत्र से बनाने पर और मौसम की रिपोर्ट पर आपत्तियां आईं। लद्दाख-अक्साई चीन में 1962 के बाद से भौगोलिक दृष्टि से यथास्थिति जैसी बनी हुई थी।
मैं यह नहीं जानता चीनी सेना एलएसी के उस ओर है या इस ओर। मैं सिर्फ इतना कह सकता हूं कि इसका अनुमान 5 अगस्त 2019 को ही लगा लेना चाहिए था और तैयारी भी तभी कर लेनी चाहिए थी। इन 60 वर्षों में जो कुछ हुआ है, उन्हीं की तरह चीनी कदमों को भी अप्रत्याशित नहीं मान सकते। और जहां तक इन कदमों को उठाने का समय चुनने की बात है, तो उसे बस बर्फ के पिघलने का इंतज़ार था।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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