दिल्ली में अभी भारत-चीन के बीच 15 जून को हुए टकराव की गूंज थम नहीं रही है। ऐसे में शायद यह बड़ा सवाल पूछने का समय है कि इस घटना का एशिया के दो बड़े देशों के बीच संबंधों पर क्या असर होगा? सवाल यह भी है कि यह त्रासदी क्यों हुई? चीन ने एक शांत सीमा को इस तरह अस्थिर करने का जोखिम क्यों लिया?
भारत में इस बात पर सर्वसम्मति है कि यह चीनी सैन्य दस्ते का एलएसी पर अपनी स्थिति को मजबूत बनाने का सुनियोजित कदम है। केवल पैट्रोलिंग की बजाय, उन्होंने उस जगह से भी आगे अपनी स्थायी मौजूदगी बना ली है, जिस पर चीन दावा करता है।
उसका उद्देश्य गलवान और श्योक नदी के संगम तक चीनी सेना की मौजूदगी बढ़ाना लगता है, जिससे गलवान घाटी भारतीय सीमा से बाहर हो जाए। चीन ने ऐसे बयान जारी किए हैं कि गलवान घाटी हमेशा से ही चीन की थी।इसकी आशंका कम है कि बीजिंग युद्ध जैसी कोई नाटकीय योजना बना रहा है।
बल्कि, उसके कदमों का उद्देश्य छोटे सैन्य अतिक्रमण कर, स्थानीय सामरिक उद्देश्यों के लिए कुछ वर्ग किमी क्षेत्र हथिया लेना और फिर शांति की घोषणा कर देना लगता है। आपसी सहमति से डिसएंगेजमेंट की घोषणा हो जाएगी, दोनों पक्ष दावा करेंगे कि संकट खत्म हो गया है, लेकिन दरअसल यह चीन की पहले से बेहतर स्थिति के साथ खत्म होगा।
एक साल में ऐसे कई घटनाक्रमों के साथ चीन एलएसी को वहां मजबूत कर लेगा, जहां वह चाहता है, ताकि जब कभी सीमा समझौते की बात हो तो इन नई वास्तविकताओं को देखा जाएगा और समझौता उसके पक्ष में रहेगा। यही उसकी लंबे समय की योजना है।
बीजिंग कहता रहा है कि सीमा समझौते को भावी पीढ़ी के लिए छोड़ देना चाहिए क्योंकि वह जानता है कि हर गुजरते साल के साथ भारत की तुलना में चीन की आर्थिक, सैन्य और भूराजनैतिक स्थिति मजबूत होती जा रही है। इसीलिए भारत को फिर से यथास्थिति बनाने और उसी स्थिति में लौटने पर जोर देना चाहिए जो अप्रैल 2020 से पहले थी।
यह बहुत अस्पष्ट है कि क्या चीन यह बात मानेगा। दोनों देशों ने सीमा पर और सेना भेजी है और लंबे टकराव की आशंका लगती है। गलवान घाटी की त्रासदी और चीनी सेना की कार्रवाई ने भारतीय जनता के बीच चीन के खिलाफ विद्वेष भड़का दिया है। इससे नई दिल्ली में बैठे उन लोगों को बल मिला है, जो सोचते हैं कि भारत को अमेरिका और क्षेत्र के अन्य लोकतंत्रों के साथ चीन के खिलाफ खड़े होना चाहिए।
बीजिंग पर भरोसा न करने के कई कारण हैं। जैसे, भारत के कट्टर-दुश्मन पाकिस्तान के साथ चीन का ‘ऑल-वेदर’ गठजोड़, जिसमें उसने अरबों डॉलर निवेश किए हैं। साथ ही चीन अक्सर पाक का पक्ष लेेता रहता है। फिर भारत के पड़ोसियों नेपाल, श्रीलंका, म्यांमार और बांग्लादेश तक में उसकी अच्छी वित्तीय मौजूदगी है, ताकि वह नई दिल्ली के पारंपरिक प्रभाव को कम कर सके।
साथ ही यूएन सिक्योरिटी काउंसिल या न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप में भारत की स्थायी जगह का चीन द्वारा विरोध भी कारण हैं।
शीत युद्ध खत्म होने के साथ, बीजिंग के पास भारत से संबंध के दो विकल्प थे: पहला अमेरिका के प्रभुत्व का वैकल्पिक ध्रुव बनाने के लिए भारत को रूस के साथ स्वाभाविक सहयोगी के रूप में देखना या अपनी खुद की महत्वाकांक्षाओं के चलते उसे संभावित विरोधी के रूप में देखना। ऐसा लगता है कि भारत-अमेरिका के बीच उभरे मजबूत रिश्तों को देख चीन मान चुका है कि भारत उसका विरोधी है, जबकि भारत ने बीजिंग के विरुद्ध अमेरिका का सहायक बनने से इनकार कर दिया है और चीन भारत का दूसरा सबसे बड़ा व्यापार सहयोगी है।
चीन की इस नकारात्मक धारणा के मजबूत होने के शायद ये कारण हो सकते हैं: भारत का अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ क्वाड (चतुष्कोणीय) व्यवस्था में शामिल होना, सोवियत के साथ अपने पुराने ‘लगाव’ को बढ़ाना (जिसमें ताजिकिस्तान में भारतीय सेना का बेस बनाना भी शामिल है), चीन की ‘बेल्ट एंड रोड’ पहल की आलोचना करना, चीन के प्रभुत्व की आशंका के चलते एशिया में क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी से भारत का बाहर आना और भारत का ‘इंडो-पैसिफिक’ क्षेत्र में और दक्षिण चीन सागर में अमेरिका की स्थिति का समर्थन करना। लेकिन नई दिल्ली खुद को चीन का विरोधी नहीं मानती।
भारत ऐतिहासिक रूप से गठजोड़ न करने वाला देश रहा है और उसकी कभी किसी एक के लिए ही रणनीति बनाने की इच्छा नहीं रही है। नई दिल्ली को डोनाल्ड ट्रम्प का अमेरिका कभी खास विश्वसनीय सहयोगी नहीं लगा। बतौर प्रधानमंत्री पांच बार चीन जा चुके मोदी ने आठ महीने पहले ही ‘दो देशों के बीच सहयोग के नए युग’ की शुरुआत बताई थी।
ऐसा लगता है कि वह युग आठ महीने में ही खत्म हो गया। मौजूदा घटनाक्रम में असंतुष्ट भारत, अमेरिका की तरफ जा सकता है। चीन को शायद इससे फर्क नहीं पड़ता। बीजिंग ने तय कर लिया है कि वह भारत को उसकी जगह याद दिलाने का जोखिम उठा सकता है, फिर भले ही वह जगह विरोधी खेमे में हो।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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