मैं किसी काम से भारत आया था, तभी प्रधानमंत्री मोदी ने लॉकडाउन की घोषणा की, जो दुनिया का सबसे सख्त लॉकडाउन माना गया। उन्होंने 18 दिन की महाभारत का आह्वान करते हुए कहा कि कोरोना के खिलाफ युद्ध जीतने में 21 दिन लगेंगे। दो महीने से भी ज्यादा वक्त हो चुका है और मैं यहीं फंसा हूं और दिल्ली स्थित अपने घर से बाहर नहीं जा पा रहा हूं।
मेरी पहली चिंता यह थी कि हमेशा की तरह भारत जन सुरक्षा व कल्याण के लिए अमीर देशों के उपायों की नकल कर रहा है। मैंने जब बड़े उभरते हुए देशों के अधिकारियों से बात की तो किसी ने भी संपूर्ण लॉकडाउन का समर्थन नहीं किया क्योंकि नए बेरोजगारों को संभालने के लिए संसाधनों के बिना अर्थव्यवस्था को बंद करने का नतीजा भूख और मौत होगा। कुछ ही दिनों में लाखों प्रवासी मजदूर देश के बड़े शहरों से निकलने लगे, हजारों तो मेरे दरवाजे के सामने से गुजरेे।
ज्यादातर युवा पुरुष थे, जिन्हें निर्माण कार्यों से या घबराए हुए मकान मालिकों ने निकाल दिया। उन्होंने अजनबियों की दया पर जीने की योजना बनाई और सैकड़ों किलोमीटर दूर, गावों में घर जाने के लिए पैदल चलते रहे। मुझे पूछना पड़ा कि सोशल डिस्टेंसिंग के बिना, इनमें से कितने घर पहुंच पाएंगे। एक युवा ने मुझसे कहा, ‘इससे फर्क नहीं पड़ता। सरकार कहती है कि गंभीर बीमारी है, इसलिए घर जाने के अलावा क्या कर सकते हैं?’
दिल्ली के उदारवादी संभ्रांत लंबे समय से मोदी की स्वेच्छाचारी शैली और हिन्दू-केंद्रित एजेंडा के आलोचक रहे हैं, लेकिन वे भी लॉकडाउन के लिए उनके पीछे चल पड़े। शुरुआत में सरकार ने कोरोना मरीजों को सरकारी अस्पतालों में भर्ती करने का निर्णय लिया, जिससे विशेषाधिकार प्राप्त लोग नर्क की तरह डरते हैं। एक दोस्त ने जब यह कहा कि ‘वायरस भले ही तुम्हें न मारे, सरकारी अस्पताल में तुम जरूर मर जाओगे।’ तो वह पूरी तरह मजाक नहीं कर रहा था।
तीन हफ्तों के बाद सरकार ढिलाई वाले लॉकडाउन लाने लगी, लेकिन उच्च-वर्गीय भारतीय रिलेक्स होने की जगह लॉकडाउन के जीवन को पसंद करना सीख रहे थे। उन्होंने नेटफ्लिक्स, जूम पार्टी और साफ आसमान व चांद के दृश्यों की तारीफें कीं। वे बंद पड़े चंडीगढ़ में घूमते चीते की तस्वीरें देख अचंभित होते रहे। वाह प्रकृति!
जब मैंने अपने लिविंग रूम की खिड़की से कम्यूनिटी स्टाफ के कमरों को देखा तो सोचा कि क्या 200 वर्ग फीट के कमरे में रह रहे 6 मजदूरों के लिए सोशल डिस्टेंसिंग के कोई मायने होंगे? भीड़ वाली परिस्थितियों में रहकर लॉकडाउन का कोई मतलब रह जाता है? इस बीच सामान्य दिनों में अभिमानी और संकट के समय ‘जरूरी’ भारतीय नौकरशाहों और पुलिस के लिए यह संकट जैसे खुली छूट का समय था।
वॉट्सऐप पर आए कई वीडियो में पुलिस सड़क पर लोगों को बिना संतोषजनक कारण के पीटती, सजा देती दिखी। अप्रैल मध्य तक कई अमीर देशों में अर्थव्यवस्थाएं फिर से खोलने पर बहस होने लगी। अमेरिका में लॉकडाउन विरोधी प्रदर्शन हो रहे थे। भारत में इसपर कम बहस थी और विरोध तो और भी कम।
सबसे ज्यादा प्रभावित गरीबों और बेरोजगारों ने अपनी दयनीय स्थिति को किस्मत मानकर स्वीकार कर लिया था। ऐसा लग रहा था कि देश इस बात से अंजान है कि ज्यादा सख्त लॉकडाउन से आर्थिक नुकसान भी ज्यादा हो रहा है।
कई देशों में महामारी मौत का सबसे बड़ा कारण बन गई है, वहीं भारत में अब भी हर हफ्ते टीबी या डायरिया जैसे रोगों से ज्यादा मौतें होती हैं, ज्यादातर ग्रामीण क्षेत्रों में। फिर भी शहरी संभ्रांत वर्ग पर राजनीति का प्रभाव रहा और वे सख्त लॉकडाउन का समर्थन करते रहे। मेरे एक दोस्त ने कहा, ‘अगर सरकार प्रतिबंध हटा देगी तो लाखों निरक्षर भारतीय सड़कों पर उतर आएंगे और बीमारी तेजी से फैलेगी।’
अनुमान है कि हर हफ्ते लॉकडाउन की वजह से लाखों भारतीय गरीबी रेखा के नीचे चले गए। इसपर संभ्रांत वर्ग का जवाब होता है, ‘सरकार को उनका ख्याल रखना चाहिए। देखो अमेरिका विस्थापित कामगारों पर कितना खर्च कर रही है।’ वे यह नहीं सोचते कि भारत में औसत आय अमेरिका की तुलना में केवल 8.3% है या किसी भी देश की ब्यूरोक्रेसी, जिसमें बहुत अमीर देश भी शामिल हैं, करोड़ों कामगारों के अचानक पलायन के लिए तैयार नहीं है।
अब विडंबना यह है कि भारत आजादी के बाद की सबसे बड़ी मंदी की ओर बढ़ रहा है और आर्थिक दबाव ने कोरोना मामले बढ़ने के बावजूद अनलॉक के लिए मजबूर किया है। घर लौटते और वहां जाकर पॉजिटिव आ रहे प्रवासियों की दुर्दशा को कोई नजरअंदाज नहीं कर सकता।
जब मैं यह लेख लिखने बैठा तो रात आधी से ज्यादा बीत चुकी थी। बाहर अचानक गुस्से में चीखने की आवाजें आईं। वह प्रवासियों का समूह था, जो पास की झुग्गी-झोपड़ी से आए चोरों के हमले से बचने की कोशिश कर रहा था। मैं आशा करता हूं वे सुरक्षित घर पहुंच गए होंगे। लेकिन लॉकडाउन वाली जिंदगी से प्यार? यह प्यार बहुत महंगा पड़ेगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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