वाकई, 68 दिन लॉकडाउन में गुजारे तो पता चला जिंदगी की कीमत क्या होती है। ये भी समझ आयाकि वो हम ही हैं जो खुद को साफ-पाक बताकर बाकी सबको गंदा करने का जुर्म कर रहे हैं। अलसाईसुबह की चाय से लेकरदेर रात के खाने तक हमने यू हींबातों-बातों मेंएक बार तो इस तोहमत को कुबूलकरके आंखें भी झुका ली।
बहरहाल, चार खंडों में -68 दिन का कोराना-उपवास खत्म हुआ। अब फिर वही हाल और हालात बन रहे हैं, फिर वही धूल, धुआं, गंदगी और जहरफैलना तय है। कुदरत ने तो इन दिनों में दिखा दिया कि, हम इंसानों के बिना भी वो बहुत खुश है। यकीन न आए तोये तस्वीरों वाले सबूत देखिए, जो हमने ही खुद को आईना दिखाने के लिए जमा किए हैं।
दुनिया का सबसे जवान पर्वत अपने जख्म भर रहा है, और हवा के साथ ये संदेसा सबसे पहले जालंधर से आया। पहले लॉकडाउन के हफ्ते भर बाद एकसुबह जब लोग घरों की छतों पर आए तो नजरों के सामने हिमाचल की धौलाधार पर्वतश्रृंखला की चोटियां नजर आ रही थीं। बुर्जुग कहते हैं कि इंदिरा गांधी के जमाने में कभी ऐसा देखा था, अब मोदी के लॉकडाउन में पहाड़ फिर नजर आए हैं। कोरोना के कारण ही सही, हमारे बच्चों ने पहली बार कुछ ऐसा देखा तो सही।
सीता माता के धरती से प्रकट होने की भूमि सीतामढ़ी ने लॉकडाउन में माउंट एवरेस्ट की चोटी के दर्शन कर लिए। यहां से एवरेस्ट की चोटी 210 किमी दूर है। लॉकडाउन में यहां की आबोहवा ऐसी सुधरी कि हिमालय पर्वतमाला के पहले का नूनथड़ पहाड़ और पीछे पीछे बर्फ से ढंकीं एवरेस्ट की चोटियां साफ दिखने लगीं। खुश होकर यहां के लोग बताते हैं कि बीते 40 साल में ऐसा साफ आसमान पहली बार देखा।
गंगा-यमुना की दोआब की जमीन के लिए मशहूर सहारनपुर में 40 फीसदी प्रदूषण कम हो गया। ऐसे में मैदान और पहाड़ के बीच बसे सहारनपुर से 200 किमी दूर गंगोत्री-यमुनोत्री और त्रिशूल रेंज की हिमालयन चोटियां साफ दिखाई देने लगीं। दूर तक नीला आसमान और बर्फीली चोटियां नजर आने लगीं। इनकम टैक्स अफसर दुष्यंत कुमार सिंह ने इनकी तस्वीरें सोशल मीडिया पर डाली तो लोग चौंक गए। बडे-बूढ़ों ने याद किया कि करीब 50 साल बाद ऐसा नजारा देखने को मिला।
लॉकडाउन में गंगा का वो अनोखा रूप देखने को मिला जिसके लिए कई सरकारें करोड़ों का बजट बनाकर मिशन चलाने की कसमें खाती रही हैं। किसे पता था कि कुछ हफ्तों की बंदिशें गंगा को इतना निर्मल कर देंगी कि पानी नीला और तलहटी के पत्थर तक नजर आने लगेंगे। वैज्ञानिक कह रहे हैं कि पहली बार गंगा में बैक्टीरियोफेज नाम के वो सूक्ष्मजीव बढ़ गए हैं जो इसके पानी को सड़ने नहीं देते। ये अच्छे संकेत है, बशर्ते हम अपनी करतूतों से बाज आएं और गंगा को सचमुच मां जैसा समझें।
अप्रैल में कश्मीर में परेशान करने वाले आतंकी हमलों के बीच एक खुशनुमा तस्वीर भी देखने को मिली। ये हिमालय के दिल में बसे उस पीर पंजाल दर्रे की थी जो श्रीनगर से अमूमन धुंधली नजर आती थी। फोटोग्राफर तुफैल शाह की इस तस्वीर में कौमी एकता के रंग भी नजर आए। सबसे नीचे सफेद पवित्र हजरतबल दरगाह, उसके पीछे हरियाला हरि पर्वत और सबसे पीछे श्वेत-धवल पीर पंजाल ऐसे फैला नजर आया मानों श्रीनगर शहर इसका तकिया लगाए एक झपकी ले रहा हो।
दिल्ली का सियासी नूर तो गजब का है, पर बात हवा-पानी की आती है तो एक झटके में सारी चमक हवा हो जाती है। खुद रहने वाले पुरानी बातें याद करके नए जमाने को कोसने लगते हैं। कुछ पुराने इलाकों को छोड़ दें तो पूरा राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र मानों कंक्रीट का तपता जंगल लगता है। हवा का तो रंग ऐसा कि, छू ले तो कालिख छोड़ दे। लेकिन, लॉकडाउन में पहाड़ों से आई साफ हवा ने दिल्ली के आसमान से बदरंगी धुंध को जब हटाया तो इंडिया गेट भी मानों मुस्कुराने लगा।
क्वीन्स नेकलेस की शक्ल वाले मरीन ड्राइव इलाके का मतलब है मुम्बई के दिल तक जाती सड़क। यहां एकतरफ गाड़ियों का रेला चलता है तो साथ-साथ अरब सागर बहता है। लॉकडाउन में सब ठहर गया। सारा शोर, सारी तेजी और भागमभाग पर लगाम लगी तो सागर ने खुद टटोला। मटमैलेपन का चोला उतार फेंका। बरसों की जमी काई और गंदगी दूर हुई तो रेत का सुनहरा रूप भी निखर उठा।
टेक्नोलॉजी और तेज दिमागों के शहर बेंगलुरु को गार्डन सिटी भी कहा जाता है। लॉकडाउन की बंदिशों में इस मेट्रो शहर ने फिर अपने इस नाम को सार्थक किया। रास्तों पर नए जमाने की फूलों की बहारें दिखीं और बगीचों में खूब हरियाली। बढ़ते- भागते बेंगलुरु का ये रूप देखकर लोग हैरान भी हुए कि, वाकई, हमारे आसपास इतनी खूबसूरती छुपी थी, जो थोड़ी से ठहराव में बाहर निकल कर झांकने लगी।
ताज आगरा की पहचान है तो प्रदूषण और गंदगी इस पर एक बदनुमा दाग। लॉकडाउन में जब सब कुछ थमा तो ताजनगरी ने थोड़ी राहत की गहरी सांसें लीं। आसमान में धुंध छटीं तो जमीन पर यमुना भी थोड़ी मचल कर बहने लगी। इसी नजारे को कैमरामैन ने ड्रोन की नजर से देखा। जब तस्वीरें सोशल मीडिया पर फैलने लगीं तो हर मोहब्बत भरे दिल से यही मुराद निकली कि, काश ये नजारा आगे भी कायम रहे।
इडली-डोसे के लिए मशहूर उडुपी में वराही और सुवर्णा नदियों के किनारे लॉकडाउन में खिलाखला उठे। दो महीने तक मछुआरे और मनमौजी लोग नहीं पहुंचे तो इलाके में बेतरतीब ही सही, हरियाली भर गई। आसमान भी बादलों की आमद भी बढ़ने लगी, मानों नदी से थोड़ी गुफ्तगु करने की ख्वाहिश तो हमेशा से थी, पर मौका अब मिला। ऐसी ही एक ढलती शाम की तस्वीर सोशल मीडिया पर वायरल हुई और उडुपी पहचान में आसमानी रंग भर गया।
पुरानी मुम्बई का मशहूर इलाका है बाबुलनाथ और पारसी कॉलोनी। आसपास अच्छी और मेहनत से बची हरियाली है। इन्हीं में मोरों का बसेरा भी है। लॉकडाउन में जब इंसानों का डर कम हुआ तो ये मोर महंगे अपार्टमेंट और बंगलों तक पहुंच गए। इन खूबसूरत मेहमानों को इंसानों ने तो नहीं बुलाया था, लेकिन कुदरत की तरफ से इशारा जरूर था कि जाओ, देखो कि ये इंसान आखिर गायब कहां हो गए। बॉलीवुड सितारों और नेताओं ने भी फुर्सत में नाचते मारों की तस्वीरें अपने सोशल मीडिया अकाउंट पर पोस्ट कर जताया कि उन्हें भी अपने पर्यावरण की बड़ी फिक्र है।
अंग्रेजी की डॉल्फिन को हिंदी में सूंस कहते हैं। कम ही लोग जानते हैं कि ये प्यारी सी मछली भारत का राष्ट्रीय जल जीव भी है। अप्रैल के आखिरी हफ्ते में मेरठ की मटमैली गंगा में जब डॉल्फिन गोते लगाती नजर आई तो लोगों ने इसे सौभाग्य कहा। मीठे पानी में मिलने वाली डॉल्फिन कभी गंगा की शान हुआ करती थी, पर गंदगी और कीचड़ ने इसे अंधा बनाकर दुर्लभ कर दिया। अब लॉकडाउन में मेरठ तक चक्कर लगा कर डॉल्फिन कह रही है- गंगा को साफ रखो, मैं मिलने आती रहूंगी।
बंगाल के सुंदरबन और उड़ीसा की चिल्का झील में इरावती डॉल्फिन मिलती है। लॉकडाउन में मछुओं के जालों से आजादी मिली तो ऐसी ही डॉल्फिन हुगली नदी तक आ पहुंची, लेकिन दलदल में फंस गई तो नेक गंगा प्रहरी दिनेश गुमता, सिबिप्रसाद चातुई और साथियों ने मदद की। जब इसका उपचार करके पानी में दोबारा छोड़ा गया तो मानों जाते-जाते हम इंसानों से कह गई कि- कुछ नेकी अभी बाकी है, इसे बढ़ाते रहना।
लॉकडाउन ने इंसानों को घरों में कैद किया तो जानवर बेखौफ होकर बस्तियां घूमने लगे। ऐसी ही यात्राएं पानी के जीवों ने भी की और उन्हीं में से एक कहानी सुर्खियां बनी। नेपाल की राप्ती नदी में छोड़ा गया एक घड़ियाल लॉकडाउन के 61 दिनों तक 1100 किलोमीटर का सफर तय करके भारत की गंडक, गंगा, फरक्का और हुगली नदी घूम आया। आखिर में जब बंगाल के नदिया इलाके में पकड़ा गया तो पूरी कहानी सामने आई।
मुम्बई से सटे नवी मुम्बई में अरब सागर के बैकवॉटर की मेहरबानी से खाड़ियां और छोटी नदियां जिंदा हैं। हर साल की तरह इस बार भी अप्रैल में यहां राजहंसों के नाम से मशहूर गुलाबी फ्लेमिंगो आए तो मानों पानी का रंग गुलाबी हो गया। बॉम्बे नैचुरल हिस्ट्री म्यूजियम ने बताया कि इस बार इनकी संख्या में करीब 25 फीसदी की बढ़ोतरी देखी गई। अब इसे कुदरती बुद्धि कहिए कि इन राजहंसों को पहले ही पता चल गया था कि इस बार इंसान उनकी लम्बी परवाज नहीं रोक पाएगा।
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