
दिल्ली में आज भीखभी मिलती नहीं उन्हें,
था कल तलक दिमागजिन्हें ताज-ओ-तख्तका
मीर तक़ीमीर के इस शेर को आप अपनी समझ के हिसाब से भाजपा या कांग्रेस से जोड़कर देख सकते हैं। इस शेर के साथ इन दो पार्टियों का जिक्र सिर्फ इसलिए, क्योंकि 7 साल पहले तक यही दोनों दल थे, जो दिल्ली में सत्ता हासिल करने का दम रखते थे, लेकिन अब ये पार्टियां दहाई का आंकड़ा तक नहीं छू पा रहीं। कांग्रेस पिछले दो चुनावों से खाली हाथ है, वहीं भाजपा इस बार 300 से ज्यादा सांसद, मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों की फौज उतारने के बाद भी सीटों का आंकड़ा 3 से 8 पर ही ले जा सकी। चुनाव के नतीजे क्या होंगे, ये दिल्लीवासी तो शुरू से ही जानते थे, लेकिन मेरे, आपके और बाकी देशवासियों के लिए ये समझना इतना आसान नहीं था। मैं अपनी बात करूं तो चुनाव कवरेज के लिए जब मैं दिल्ली पहुंचा तो शुरुआत के 3 दिनों में ही समझ आ गया कि आम आदमी पार्टी की टक्कर में भाजपा कहीं नहीं है। मैं कांग्रेस का जिक्र यहां नहीं कर रहा और इसका कारण बताना भी शायद जरूरी नहीं। एक और बात... मीर का यह शेर इसलिए लिखा क्योंकि पुरानी दिल्ली के कूचा चालान में मीर ने कई साल गुजारे। अहमद शाह अब्दाली ने जब दिल्ली पर कब्जा करने के बाद उसे लूटा तो वे लखनऊ चले गए। कहते हैं कि मीरदिल्ली को बड़ा याद करते थे और दिल्ली के लोगों की समझ की बड़ी तारीफ किया करते थे। दिल्ली को याद करते हुए ही उन्होंने इसे लूटने वालों के हश्र को बयां करते हुए यह शेर लिखा था।
अब इतिहास में ज्यादा न उलझते हुए मुद्दे की बात करते हैं।..तो कहानी कुछ ऐसी है कि 17 जनवरी को मैं दिल्ली पहुंचा और ठीक तीन दिन बाद जब भोपाल से एक साथी काकॉल आया। उसने पूछा- कौन जीत रहा है? और मेरा जवाब था- ‘‘शायद भाजपा को एक भी सीट न मिले।’’मैंने फोन कॉल से पहले इस बारे में कुछ नहीं सोचा था। सामने वाले ने यह सवाल किया और अनायास ही यह जवाब निकला। शायद यह जवाब इसलिए निकला, क्योंकि मैं उन तीन दिनों में तीनों पार्टियों के दफ्तरों और दिल्ली की 15 से 20 विधानसभाओं में तफरीह कर चुका था। लोगों से जो प्रतिक्रिया मुझे मिली, उसी से यह जवाब आया। जवाब देते वक्त एक गणित भी दिमाग में था और वह यह कि उन 3 दिनों में तकरीबन 100 लोगों से बात हुई होगी और शायद 3 या 4 लोग ही ऐसे थे जो केजरीवाल सरकार से नाखुश थे। तीनों पार्टियों के कार्यकर्ताओं से बात करने के दौरान उनके हाव-भाव से जो सार मिला, वो भी मेरे एकतरफा जवाब में अहम भूमिका निभा रहाथा।
ये बस तीन दिनों की बात थी। जैसे-जैसे दिन गुजरने लगे और भाजपा का चुनाव प्रचार तूफानी होता गया तो मन में यह ख्याल कई बारआया कि एक हारी हुई लड़ाई लड़ने के लिए भाजपा इतना सब कुछ क्यों झोंक रही है, लेकिन जब नतीजे आए तो यह भी साफ हो गया। अगर भाजपा इतना संसाधन नहीं झोंकती तो शायद उसके हाथ खाली ही रह जाते। चुनाव नतीजों के बाद दैनिक भास्कर के रिपोर्टर संतोष कुमार के साथ बातचीत में भाजपा के एक बड़े नेता ने इस बात का जिक्र भी किया कि जनवरी में भाजपा हाईकमान के पास 18% से कम वोट मिलने की रिपोर्ट पहुंची। इस रिपोर्ट में 70 की 70 सीटें आम आदमी पार्टी को जाती हुई बताई गईं। इसी के बाद भाजपा ने हारी हुई लड़ाई को लड़कर हार-जीत का अंतर कम करने के लिए इतनी मेहनत की। नतीजे के दिन जब मैं भाजपा कार्यालय में था, तो शुरुआती रुझानों के दौरान कार्यकर्ताओं के एक ग्रुप को यह कहते हुए भी सुना कि अगर यहां एक भी सीट भाजपा को मिल रही है तो समझिए कि वो अमित शाह की मेहनत का नतीजा है।

बात को फिर से थोड़ा सा पीछे ले जाते हैं। पहले दिन जब दिल्ली पहुंचा तब तक बिजली, पानी, स्कूल औरअस्पताल की जगह शाहीन बाग चुनाव का सबसे बड़ा मुद्दा बन चुका था। मैंने सोचा कि पहले दिन शाहीन बाग ही जाया जाए। रात 11 बजे शाहीन बाग पहुंचा। छोटे-बड़े सैकड़ों तिरंगों से पटे इस बाग में छोटे-छोटे समूहों में आजादी के नारे लग रहे थे। यहां एक बात साफ कर दूं कि ये सीएए और एनआरसी से आजादी के नारे थे, देश से आजादी के नहीं। यहां मंच से हिंदुस्तान में अमन-चैन के लिए प्रार्थना हो रही थी। लोग अलग-अलग अंदाज में मोदी सरकार के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे थे। 5 से 7 दुकानें थीं, जहां तिरंगे से जुड़ी कई तरह की चीजें खरीदेने के लिए लोगों की भीड़ उमड़ रही थी। 3-4 ग्रुप्स में युवा प्रदर्शन में शामिल लोगों के चेहरे पर तिरंगा पोत रहे थे।इन्हीं में से एक शख्स ने बताया कि इतने लोग चेहरे पर तीन रंग लगवा रहे हैं कि हाथ दर्द देने लगते हैं।
भाजपा शाहीन बाग में चल रहे जिस प्रदर्शन को देशद्रोही गतिविधिसाबित करने पर तुली हुई थी, लेकिन वहां मैंने ऐसा कुछ नहीं पाया। यानी इतना साफ हो चुका था कि भाजपा के पास चुनाव लड़ने के लिए कोई मुद्दा नहीं है और शायद इसीलिए वह ध्रुवीकरण के जरिए हारी हुई जंग लड़ना चाहती है। 17 जनवरी से लेकर 11 फरवरी तक हर दूसरे दिन मैं शाहीन बाग पहुंच जाता और मैंने हर बार वहां का नजारा वैसा ही पाया। बल्कि ये कहें कि यह और दिलचस्प होता गया। 15 दिसंबर से गुस्से के साथ शुरू हुआ यह प्रदर्शन एक खुशनुमा माहौल में बदल चुका था।

खैर, यह शाहीन बाग की बात थी, जो पूरे चुनाव में सबसे बड़ा मुद्दा होकर भी आखिर में मुद्दा नहीं बन पाया क्योंकि लोगों ने मुफ्त बिजली, पानी व स्कूलों और अस्पतालों में अच्छी सुविधाओं के नाम पर वोट किया। पहले दिन मैं जब रेलवे स्टेशन से अपने एक महीने के नए ठिकाने के लिए आगे बढ़ रहे थे तो कैब ड्राइवर ने जो हाल दिल्ली का बयां किया, वही हाल अगले 26 दिनों तक सुनने को मिला। दिल्ली के सफर की शुरुआत में मिले इस पहले बाशिंदे से मैंने सिर्फ इतनी पूछा था कि क्या माहौल है इस बार? वो शुरू हुआ और 1 घंटे में मुफ्त बिजली-पानी, महिलाओं को फ्री बस टिकट से लेकर सरकारी स्कूलों में अच्छी पढ़ाई और सरकारी अस्पतालों में सुविधाएं बेहतर करने जैसी केजरीवाल सरकार की योजनाओं की तारीफें करता रहा। उस बाशिंदे का नाम तो अब ध्यान नहीं लेकिन जो बातें उसने कही, वही बातें दिल्ली के हर कोने से सुनने को मिली।
मोटे-मोटे तौर पर कहें तो इन 26 दिनों में अगर हमने 1000 लोगों से बात की तो 900 से ज्यादा लोगों ने इन्हीं चार मुद्दों के आधार पर केजरीवाल को वोट देने की बात कही। हां, यहां एक बात जरूर कहूंगा कि यहां जितने भी लोगों से बात हुई, उनमें से 80% से ज्यादा लोगों की पीएम पद के लिए पहली पसंद नरेंद्रमोदी ही थे। एक लाइन जो शायद 100 से ज्यादा बार सुनी, वो यही थी कि केंद्रमें मोदी जी जैसा ही नेता होना चाहिए और दिल्ली में केजरीवाल। लोगों की यह राय 8 महीने पहले हुए लोकसभा चुनाव से मिलती है, जब यहां की जनता ने सातों सीटें भाजपा को दी थी। लोकसभा चुनाव में 70 विधानसभा सीटों में से 65 पर भाजपा को लीड थीऔर बाकी 5 पर कांग्रेस। आम आदमी पार्टी वोट शेयर के मामले में भी तीसरे पायदान पर थी, लेकिन विधानसभा चुनाव में जनता ने पूरा उलट मतदान किया। ओडिशा का चुनाव हो या दिल्ली का। केंद्र और राज्य के लिए जनता की अलग-अलग पसंद एक बात तो साफ करती है कि लोगों पर अब एक ही पार्टी का रंगनहीं है। वे अपनी प्राथमिकताओं के आधार पर एक ही समय अंतराल में केन्द्र और राज्य के लिए अलग-अलग सरकारें चुन सकते हैं।

अपने इस दौरे में मुझे केजरीवाल सरकार के खिलाफ बोलने वाले भी मिले, लेकिन इनकी संख्या कम ही थी। इन लोगों का कहना था कि बिजली-पानी तो सिर्फ गरीब तबके के वोट हासिल करने के लिए फ्री किए गए। पिछले 5 साल में नई सड़कें नहीं बनीं। ट्रैफिक इतना बेकार हो गया है कि हम बाजार जा रहे हैं, लेकिन वहां आज पहुंच पाएंगे या नहीं, इसकी कोई गारंटी नहीं। एक शख्स ने तो यह तक कह दिया कि आप भोपाल से हैं। आपके राज्य के दो शहर इंदौर और भोपाल पिछले कुछ साल से सफाई के मामले में नम्बर-1 और नम्बर-2 हैं, लेकिन देश की राजधानी में हर जगह कूड़े के ढेर सड़ रहे होते हैं। इन लोगों का यह भी कहना रहा कि हमें नहीं पता होता है कि दिल्ली में कौन सा काम केजरीवाल सरकार के बस का है, कौन सा काम केंद्र के अधिकार क्षेत्र में आता है और कौन सा काम दिल्ली की नगर निगमों के अंतर्गत आता है, लेकिन हम इतना कह सकते हैं कि जो भी काम केजरीवाल ने नहीं कराया, उसके लिए वे केन्द्र और एमसीडी की भाजपा सरकार को दोषी करार दे देते हैं। लेकिन जिन योजनाओं को अपनी उपलब्धियां बताकर वे लोगों से वोट मांग रहे हैं, क्या वो सब केंद्र की रजामंदी के बिना हो गया?
बहरहाल,केजरीवाल सरकार के कामकाज से खुश लोगों की संख्या पहले दिन से आखिरी दिन तक ज्यादा ही रही। और वही नतीजों में भी दिखा। हां, ज्यादा पैसा जोड़ने वाले लोग केजरीवाल की योजनाओं से खुश नहीं थे, क्योंकि उनके लिए 5 साल में कुछ नहीं बदला था। शायद इसका कारण ज्यादा कमाई वाले लोगों का चुनाव के लिए उदासीन होना हो सकता है। दरअसल, दिल्ली में ज्यादा कमाई वाले कम ही लोग वोट देने के लिए निकलते हैं।इसके उलट कम कमाई वाले लोग वोटिंग में जमकर हिस्सा लेते हैं।वो कहते हैं ना कि वोट कीमती होता है, आप वोट देंगे तभी आपकी बात सुनी भी जाएगी, वोट नहीं देंगे तो कोई नेता भला क्यों आप पर ध्यान देगा। गरीब तबके के लोगों को इस बात की समझ है, शायद इसीलिए वे उत्साह के साथ वोट करते हैं। अमीर तबके को शायद सरकारसे कोई मतलब नहीं। हां, ये बस कोई पूछे तो सरकार को कोस जरूर सकते हैं।
कवरेज की इस भागदौड़ के बीच मैं दिल्ली की चटपटी गलियों में स्वाद के चटकारे भी लेतारहा। मूलचंद के पराठे से लेकर चांदनी चौक की रबड़ी जलेबी का स्वाद सबसे ज्यादा याद रहेगा। एक और बात जो याद रहेगी वो यह कि गालिब की हवेली देखने की तमन्ना पूरी हो गई। चावड़ी बाजार मेट्रो स्टेशन से करीब 500 मीटर दूर इस हवेली केआधेसे ज्यादा हिस्से पर लोग कब्जा कर चुके हैं। हवेली का जो थोड़ा बहुत हिस्सा बचा हुआ है, वहां गालिब को आप अपने बीच महसूस कर सकते हैं।

भाजपा और आप का तूफानी चुनाव प्रचार चलता रहा। भाजपा नेताओं की जनसभाओं में शाहीन बाग, पाकिस्तान, धारा-370, अयोध्या में मंदिर, सीएए-एनआरसी के मुद्दे हावी रहे। आप का पूरा फोकस अपने कामों को जनता तक पहुंचाने पर रहा। भाजपा नेताओं की ओर से कुछ भड़काऊ बयान भी आए, जो शायद भाजपा का एक प्रयोग मात्र था। वैसे तो भाजपा के राष्ट्रवाद और हिंदुत्व के रंग का असर आप पर भी था। आप ने भी अपने घोषणापत्र में देशभक्ति का सिलेबस लाने की बात कर दी। बड़ी बात है कि केजरीवाल और मनीष सिसोदिया से किसी ने सवाल नहीं कियाकि आखिर आपको देशभक्ति का सिलेबस लाने की जरुरत क्यों पड़ रही है? अफसोस, मुझे भी यह मौका नहीं मिला।बहरहाल, दिल्ली में केजरीवाल फिर से 5 साल के लिए चुन लिए गए हैं। उम्मीद है पिछले बार की तरह इस बार केंद्र और राज्य के बीच झगड़े सामने नहीं आएंगे। आखिरी में कांग्रेस की हालत पर हबीब जालिबकाएक शेर साझा करूंगा….
अब वो फिरते हैं इसी शहर में तन्हा लिए दिल को
इक जमाने में मिज़ाज उन का सर-ए-अर्श-ए-बरीं था

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