मुझे सुप्रीम कोर्ट की आलोचना करना पसंद नहीं है। ज्यादातर भारतीयों की तरह मेरे मन में भी इस संस्थान के लिए बहुत सम्मान है। मेरे मन में हर उस संस्थान के लिए सम्मान है जो हमारे लोकतंत्र को सुरक्षित रखने का प्रयास करता है, खासतौर पर इस मुश्किल दौर में। लेकिन संस्थानों के सम्मान का मतलब यह नहीं है कि आलोचना से परे जाकर उनके हर काम को अलंघनीय मान लिया जाए।
संस्थानों को लोग चलाते हैं और हम सभी की तरह उनसे गलती हो सकती है। यह नागरिकों का काम और जिम्मेदारी है कि वे उनके फैसलों पर सवाल उठाएं। जब वास्तविक आलोचना को हतोत्साहित किया जाता है, तो बेकार गप या अफवाह बढ़ती है। और यह हमारे संस्थानों की अखंडता के साथ लंबे समय में लोकतंत्र के लिए भी खतरनाक है।
सुप्रीम कोर्ट और उसके कुछ जजों के तरीकों के बारे में सवाल उठाने वाले प्रशांत भूषण पहले व्यक्ति नहीं है। कोर्ट जो भी फैसला सुनाए, वे ऐसा करने वाले आखिरी व्यक्ति भी नहीं होंगे। कुछ अति सम्मानित न्यायाधीशों ने भी शायद भूषण की तुलना में ज्यादा सुरक्षित भाषा में ऐसी ही चिंताएं जताई हैं।
लेकिन भूषण अपनी चिंता व्यक्त करने के लिए सोशल मीडिया इस्तेमाल कर रहे थे और ट्विटर को जानते हुए मैं यह समझ सकता हूं कि उन्होंने यह बिना किसी सजावट या कोमलता के, सीधे-सपाट शब्दों में क्यों कही। सोशल मीडिया यूजर्स को उनकी समझ और अभिव्यक्ति में परिष्करण के लिए नहीं जाना जाता। (आप डोनाल्ड ट्रम्प के ट्वीट ही देख लीजिए)
भूषण द्वारा उठाए गए मुद्दे अब सार्वजनिक बहस का मामला हैं और उन्हें सिर्फ अवमानना कहकर दबा नहीं सकते। वे बार-बार बता चुके हैं कि उनकी टिप्पणियों का उद्देश्य सुप्रीम कोर्ट का अपमान नहीं था। उन्होंने दावा किया कि ट्वीट उनके यथार्थ विचारों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिन पर वे अडिग हैं। इनकी अभिव्यक्ति के लिए सशर्त या बिना शर्त माफी मांगना भूषण के शब्दों में ‘उनकी अंतरात्मा की अवमानना’ होगी।
भूषण को 14 अगस्त को अवमानना का दोषी माना गया। कोर्ट में 20 अगस्त को सजा पर बहस हुई और भूषण को बिना शर्त माफी मांगने के लिए 24 अगस्त तक का वक्त दिया गया। मुझे लगता है कि इसके पीछे मामले को बंद करने का विचार रहा होगा। एक साधारण क्षमायाचना ने कई कोर्ट केस सुलझाए हैं। लेकिन भूषण स्पष्ट थे कि वे माफी नहीं मांगेंगे। वे सजा के लिए तैयार थे।
रोचक बात यह है कि अटॉर्नी जनरल (एजी) केके वेणुगोपाल ने सुप्रीम कोर्ट से भूषण को चेतावनी देकर छोड़ने की बात कही। एजी ने ध्यान दिलाया कि कई मौजूदा और सेवानिवृत्त जज उच्च न्यायपालिका में भ्रष्टाचार पर टिप्पणी कर चुके हैं। ऐसी खबर है कि उन्होंने कहा, ‘ये बयान कोर्ट से बस यह कह रहे हैं कि आपको अस्पष्टता को देखना चाहिए और खुद में सुधार लाने चाहिए।’
यह कितना भी असमान्य लगे, लेकिन इससे साबित होता है कि कई लोग मानने लगे हैं कि कोर्ट का सम्मान होना चाहिए, लेकिन वह वास्तविक आलोचना से खुद को अलग नहीं कर सकता। यह चिंता की बात है कि अब एक सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश को कुछ ही महीनों में राज्यसभा नामांकन के लिए चुनना अनुचित नहीं माना जाता। ऐसा एक ही उदाहरण नहीं है।
पूर्व जज, सेवानिवृत्त नौकरशाह, पत्रकार और वकीलों समेत सिविल सोसायटी के 3000 से ज्यादा सदस्यों ने प्रशांत भूषण के पक्ष में यह कहते हुए बयान जारी किया है कि न्यायपालिका की कार्यप्रणाली के बारे में चिंता व्यक्त करना नागरिकों का आधारभूत अधिकार रहा है।
इससे भी असमान्य यह है कि बार के 1800 सदस्यों ने भी कोर्ट के फैसले की आलोचना की है। उन्होंने यह कहा कि देश का सर्वोच्च न्यायालय जिस तेजी से भूषण के मामले की सुनवाई कर रहा है, उसपर भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश आरएम लोढ़ा भी सवाल उठा रहे हैं।
सुप्रीम कोर्ट से 19 महीने पहले रिटायर होने वाले जस्टिस मदन बी लोकुर पूछते हैं: ‘क्या देश की सबसे शक्तिशाली अदालत की नींव को एक ऐसा वकील हिला सकता है, जो बहुत ताकतवर नहीं है?’ प्रशांत भूषण ने कई ईमानदार चिंताएं जताई हैं। ऐसी चिंताएं जिनके बारे में कई दबी आवाज में बात करते हैं।
लोगों के मन में कुछ सवाल हैं, कुछ शंकाएं हैं। अच्छा है कि यह बहस सामने आई। दुर्भाग्य से अदालत ने आलोचना का स्वागत नहीं किया, शायद यही वजह है कि उसने भूषण को दंडित करने की दिशा में ऐसी तत्परता दिखाई। और यही चिंता की बात है।
जब तक बहस, चर्चा, आलोचना नहीं होगी, तब तक इस मुश्किल दौर में कोई संस्थान नहीं बच पाएगा, जहां सरकारें खुद अति महत्वाकांक्षी हैं, मीडिया उन्मादी हो गई है और लोकतंत्र की आधारभूत धारणाओं को चुुनौती दी जा रही है।
इनकी तुलना में अदालत की अवमानना छोटा मामला है। लोग इस बात को लेकर ज्यादा चिंतित हैं कि क्या सुप्रीम कोर्ट हमारे संविधान के उच्च लक्ष्यों को कायम रखेगी, जैसी इससे अपेक्षा है। हमें इसी सवाल के जवाब की उम्मीद है। (ये लेखक के अपने विचार हैं)
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