लंबे लॉकडाउनों ने रचनात्मकता को भी बाहर लाने का अवसर दिया है, इसलिए मैं भी इस हफ्ते कोरोना काल के ‘नए’ भारत के लिए नोबेल से सम्मानित साहित्यकार रबींद्रनाथ टैगोर की एक कविता का इस्तेमाल करना चाहता हूं (गुरुदेव से माफी के साथ)।
जहां मन भय से मुक्त हो और मस्तक सम्मान से ऊंचा हो... जहां महामारी सरकार के लिए बहाना न हो, बल्कि सरकार और नागरिकों के बीच के संबंध में नागरिकों को पहले रखकर इसे फिर परिभाषित करने का अवसर हो। जहां नियमों का पालन डरकर न हो, बल्कि जानकारी और ज्ञान से हो, जहां प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री साथ में सहयोगियों की तरह काम करें, जहां स्वेच्छाचारिता की जगह लोकतांत्रिक सर्वसम्मति हो, जहां सामान्य प्रशंसक की जगह क्षेत्र में विशेषज्ञता का सम्मान हो।
जहां राष्ट्रीय लॉकडाउन ज्यादा मशविरे के बाद लागू हों, न कि 4 घंटों के नोटिस पर। जहां जरूरी फैसले देश के सबसे बुद्धिमान लोगों से बनी नेशनल टास्क फोर्स लेती हो, न कि दिल्ली-केंद्रित नौकरशाहों का एक समूह। जहां देश की स्वास्थ्य सुविधाएं दशकों में तैयार की गई हों, जहां जन स्वास्थ्य में निवेश निजी विज्ञापन में निवेश से ज्यादा जरूरी हो।
जहां संसद की इमारत फिर से बनाने के बजाय अस्पताल बनाए जाएं, जहां विशालकाय मूर्तियों की जगह स्वास्थ्य केंद्र बनाने को प्राथमिकता दी जाए। जहां झगड़े पूजास्थल के लिए न हों, बल्कि इस बात पर हों कि विवादित जमीन अस्पताल को दी जाए या स्कूल को।
जहां डॉक्टरों को सिर्फ महामारी के समय ‘कोरोना योद्धा’ न माना जाए, बल्कि अच्छे और बुरे समय, दोनों में सम्मान हो। जहां ‘सम्मान’ का मतलब दिये जलाना, ताली-थाली बजाना न हो बल्कि स्वास्थ्यकर्मियों को बेहतर जीवन और सुरक्षा उपकरण देना हो। जहां जो आर्थिक और शारीरिक विस्थापन का सामना करें, उनके साथ अदृश्य ‘प्रवासी मजदूरों’ की तरह बर्ताव न हो, बल्कि उन्हें बराबर नागरिक का दर्जा और अधिकार मिले।
जहां हमारे घर, शहर, पुल और सड़कें बनाने वाले ‘वे’ न कहलाएं, बल्कि ‘हम’ कहे जाएं और उन्हें सामाजिक-वित्तीय सुरक्षा मिलती हो। जहां विस्थापित मजदूरों का दु:ख बताने पर पत्रकारों को गिद्ध न कहा जाता हो, बल्कि सच दिखाने पर सराहा जाता हो।
जहां मजदूरों के लिए अपने गांव पहुंचने के लिए सफर का जरिया मुहैया कराना केंद्र बनाम राज्य का मसला न हो। जहां यूपी जाने वाली ट्रेन राउरकेला न पहुंचती हो, जहां पटरियां नागरिकों के खून से न रंगती हों। जहां एक बच्ची द्वारा घायल पिता को साइकिल पर 1200 किमी ले जाने पर ओलिंपिक की संभावित विजेता के रूप में न देखते हों, बल्कि यह बेहद गरीबी की स्थिति याद दिलाता हो।
जहां हम हवाई मार्ग से भारतीयों को लाने के लिए ‘वंदे भारत’ जैसे लोकप्रिय शब्द इस्तेमाल न करते हों, जब हम जमीन पर फंसे लोगों को बेहतर विकल्प न दे पा रहे हों। जहां ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ केवल संभ्रांतों का विशेषाधिकार न हो, बल्कि सभी नागरिकों के लिए उपलब्ध विकल्प हो।
जहां 50 लोग एक ही टॉयलेट इस्तेमाल न करते हों और दर्जनभर लोग एक ही कमरे में न सोते हैं, जबकि सिंगल परिवार बहुमंजिला इमारत की शान में रहते हो। जहां धारावी को एशिया की सबसे बड़ी झुग्गी के रूप में न देखा जाता हो, बल्कि शहरी जीवन के पतन के प्रतिबिंब के रूप में देखा जाता हो, जो लाखों को गंदगी में रहने को मजबूर करता हो।
जहां ऑनलाइन एजुकेशन कुछ शहरी स्कूलों तक न सीमित हो, बल्कि डिजिटल असमानता को दूर कर तकनीक को सबतक पहुंचाने पर काम हो।जहां समुदाय विशेष का बहिष्कार न हो और केवल राजनीतिक एजेंडे के लिए धर्म तथा वायरस के बीच झूठी कड़ियां न जोड़ी जाती हों।
जहां मीडिया टीआरपी की दौड़ में उकसाने वाले हैशटैग के साथ खबरों को सनसनीखेज न बनाती हो, जिससे समुदायों के बीच वैमनस्य बढ़ता हो। जहां को-ऑपरेटिव सोसायटी या रेसीडेंट एसोसिएशन फरमानों से चलने वाली निजी जागीर न बनते हों।
जहां घरों में काम करने वालों को कोरोना लाने वाले की तरह न देखा जाता हो। जहां हमें याद रहे कि अमीर लॉकडाउन में नेटफ्लिक्स-जूम के सहारे जी लेंगे लेकिन गरीबों को आय के लिए काम की जरूरत होती है। जहां कॉर्पोरेट, पीएम केयर फंड में उदारता से दान देते हों लेकिन उनकी ‘केयर’ न भूलते हों जो उनके आस-पास हैं।
जहां सरकार ऐसा राहत पैकेज देती हो जिससे सबसे असुरक्षित लोगों को सीधे कैश मदद मिलती हो। जहां संकट में सुधार का अवसर देखते हों, लेकिन सुधार करने वाला पक्षपात न करता हो। जहां अच्छे नेटवर्क वाले उद्योगों को नहीं, बल्कि गरीबों के हितों को ध्यान में रखकर सुधारों को तैयार किया जाता हो। जहां हम ‘आत्मनिर्भर’ भारत को आकर्षक नारे की तरह नहीं बल्कि जीने की वास्तविकता की तरह देखते हों। ...उस सच्ची स्वतंत्रता के स्वर्ग में मेरा देश जागृत हो।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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