आज कबीरदास की 622वीं जयंती है। हर साल इस दिन वाराणसी के कबीर चौरा मठ में भव्य आयोजन होते हैं और हजारों कबीर पंथी यहां पहुंचते हैं, लेकिन इस बार कोरोनावायरस की वजह से बहुत ही संक्षिप्त रूप में जयंती मनाई जा रही है। कबीर चौरा मठ के उमेश कबीर ने बताया कि इस बार जयंती के कार्यक्रमों को फेसबुक पर लाइव दिखाया जाएगा। भारत के साथ ही अन्य देशों में भी कबीरदास के अनुयायी हैं। इस वर्चुअल जन्मोत्सव में भारत के अलावा नीदरलैंड, हॉलैंड, अमेरिका, इंग्लैंड, थाइलैंड सहित दस से ज्यादा देशों के लोग शामिल होंगे।
भारत में उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ में कबीर पंथ को मानने वाले काफी लोग हैं। कबीर चौरा मठ में हजारों श्रद्धालु, पर्यटक और इतिहास में रुचि रखने वाले हजारों लोग हर साल पहुंचते हैं।
कबीर जयंती पर सुबह कबीर के भजन होंगे। मठ के प्रमुख विवेकदास के प्रवचन होंगे। 2 घंटे के कार्यक्रम सुबह के समय रहेंगे। कार्यक्रम में कुछ खास स्थानीय लोग शामिल होंगे। इस दौरान सोशल डिस्टेंसिंग का पालन किया जाएगा। इन कार्यक्रमों का मठ के फेसबुक पेज पर लाइव प्रसारण किया जाएगा। इसके बाद शाम को कबीर के विचारों पर ऑनलाइन सेमिनार होगा। इसमें पटना यूनिवर्सिटी के हरिदासजी, डॉ. भागीरथी और उमेश कबीर शामिल होंगे। इस सेमिनार में कबीर के लाइफ मैनेजमेंट के टिप्स बताए जाएंगे।
600 साल पुराना है कबीर चौरा का इतिहास
उमेश कबीर ने बताया कि कबीर के जन्म के संबंध मान्यता है कि करीब 622 साल पहले काशी के पास स्थित लहरतारा क्षेत्र में तालाब के पास निरू और नीमा नाम के एक मुस्लिम दंपत्ति को एक शिशु मिला था। उस निरू और नीमा का विवाह हुआ ही था। वे दोनों शिशु को लेकर अपने घर आ गए। उनका घर आज के कबीर चौरा मठ क्षेत्र में ही था। यही शिशु आगे चलकर कबीरदास के नाम से प्रसिद्ध हुआ। कबीर ने इसी जगह को अपनी कर्म स्थली बनाया। वे इसी जगह प्रवचन देते थे, चरखा चलाते थे। कबीरदास से संबंधित तीन प्रमुख स्थान हैं। लहरतारा में उनका जन्म हुआ, काशी जहां उनका जीवन व्यतीत हुआ और मगहर यहां उन्होंने जीवन के अंतिम दिन बिताए।
आज भी मठ में रखा हुआ है कबीर का चरखा
निरू और नीमा जुलाहा दंपत्ति थे। इन्होंने ने ही कबीर पालन किया। कबीर भी पालन करने वाले माता-पिता के साथ ही कपड़ा बनाने का काम करते थे। आश्रम में आज भी कबीर का चरखा रखा हुआ है। कबीर चौरा मठ में कबीर का लकड़ी का घड़ा, सूत भी देख सकते हैं। कुछ समय पहले कबीर की जप माला चोरी हो गई थी, उसके बाद से आश्रम में अतिरिक्त सतर्कता रखी जाती है। आश्रम में एक प्राचीन कुआं है। माना जाता है कि कबीर इसी कुएं से पानी भरते थे। यहां निरू और नीमा की मजार भी है। कबीर ने निरू और नीमा की मृत्यु के बाद अपने माता-पिता को यहीं दफनाया था।
कबीर ने मगहर में बिताए अंतिम दिन
कबीरदास अंधविश्वासों के विरोधी थे। उस समय माना जाता था कि काशी में मरने वाले को स्वर्ग नसीब होता है और मगहर में मरने वाले नर्क जाते हैं। इस अंधविश्वास को तोड़ने के लिए कबीर अंतिम दिनों में मगहर चले गए थे। यहीं उन्होंने देह त्यागी। इसके बाद हिन्दू और मुस्लिमों में मगहर में कबीर की समाधी और मजार बनाई थी। कबीर को मानने वाले लोगों के लिए ये जगह एक तीर्थ स्थान की तरह है। आज भी यहां बड़ी संख्या में लोग पहुंचते हैं।
24वें मठ प्रमुख हैं विवेकदास
आचार्य विवेकदास कबीर चौरा आश्रम के 24वें मठ प्रमुख हैं। कबीरदास के बाद 23 लोग इस मठ के प्रमुख पद पर चयनित हो चुके हैं। मठ प्रमुख वही व्यक्ति बन सकता है जो कबीर को मानता हो, मठ से दीक्षा प्राप्त कर चुका हो, कबीर के विचारों को जीवन में उतारता हो, जिसका आचरण धर्म के अनुकूल हो, उसे ही वर्तमान मठ प्रमुख साथी आचार्यों से परामर्श के बाद भविष्य के लिए मठ प्रमुख नियुक्त करते हैं।
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