कोरोना के समय में देश की अर्थव्यवस्था की स्थिति के संबंध में दैनिक भास्कर के धर्मेन्द्र सिंह भदौरिया ने बात की देश के ख्यातनाम अर्थशास्त्री और 10 वर्षों तक योजना आयोग के उपाध्यक्ष रहे मोंटेक सिंह आहलूवालिया से। पेश हैंप्रमुख अंश...
सवाल: अर्थव्यवस्था पर कोविड-19 का क्या असर होगा?
अब यह साफ हो गया है कि मौजूदा साल में जीडीपी में गिरावट आएगी। सरकार ने तो अभी तक ऐसा नहीं कहा है, पर आरबीआई गवर्नर ने हाल ही यह माना है। मेरे अनुसार यह गिरावट 4 से 5 फीसदी तक हो सकती है। यह गिरावट अलग-अलग क्षेत्रों में असर डालेगी।
इनफोरमल सेक्टर और लघु व मझौले उद्योगों पर सबसे बुरा असर होगा। बेरोजगारी बहुत बढ़ चुकी है। जनवरी में बेरोजगारी करीब 7 फीसदी थी, और मई में 27 फीसदी तक पहुंच गई है। गरीबों की आमदनी में व्यापक कमी आई है और प्रवासियों के अपने गांव लौटने से यह स्पष्ट है।
सवाल: कौन से सेक्टर बहुत व्यापक स्तर पर प्रभावित होंगे?
पर्यटन, विमानन और होटल-अतिथिगृहों से जुड़े सत्कार उद्योगों पर जाहिर है सबसे बुरी मार पड़ी है। कृषि ऐसा क्षेत्र है, जिस पर संभवत: सबसे कम असर पड़ा है। ज्यादातर मैन्यूफैक्चरिंग पर मार पड़ेगी, जिसमें भी अनौपचारिक क्षेत्र व एमएसएमई उद्योगों पर सबसे बुरा असर होगा।
सवाल: 20 लाख करोड़ रुपए का आर्थिक पैकेज आखिर देश को कितनी राहत देगा?
20 लाख करोड़ रु. जीडीपी का 10% है! यह काफी बड़ा दिखाई देता है। लेकिन पैकेज में बजट से अधिक खर्च और बैंक से कर्जा दोनों शामिल है। वास्तव में बजट से अधिक खर्च ही प्रत्यक्ष रूप से मांग को बढ़ाकर अर्थव्यवस्था को रिवाइव कर सकता है, पैकेज का यह हिस्सा काफी कम है।
यह जीडीपी के करीब एक फीसदी के बराबर है। आमदनी गंवा चुके गरीबों को सहारा देने के लिए इसका आकार और बड़ा होना चाहिए था। बैंकों से कर्ज को बढ़ावा देने वाले कदम अच्छे हैं पर इस वक्त तो वे व्यवसायों को केवल जिंदा रखेंगे। इनकी पूरी रिकवरी तो तब होगी जब सरकार लॉकडाउन खत्म कर पाएगी और अर्थव्यवस्था में मांग बढ़ेगी। इसमें समय लगेगा और बहुत कदम उठाने पड़ेंगे।
सवाल: ‘वोकल फॉर लोकल’ को आप किस तरह देखते हैं?
मुझे पक्का पता नहीं है कि प्रधानमंत्री का क्या आशय है। यदि ‘वोकल फॉर लोकल’ का मतलब भारत में निर्मित उत्पादों पर गर्व करना है तो इसमें गलत कुछ नहीं है, बशर्ते क्वालिटी बहुत ऊंची हो। घटिया गुणवत्ता के प्रोडक्ट पर सिर्फ इसलिए गर्व करना कि उन्हें स्थानीय स्तर पर बनाया गया है, सही नहीं है और यह तो भारतीय उद्योग को नुकसान भी पहुंचा सकता है।
प्रधानमंत्री ने ‘आत्म-निर्भरता’ का भी जिक्र किया है। यदि यह समझा जाए कि आयात पर निर्भरता घटाना चाहिए। तो यह ग्लोबल सप्लाई चैन का हिस्सा बनने से संगत नहीं है। ग्लोबल सप्लाई चैन में शामिल होने के लिए वस्तुओं का आयात करना होगा, उसमें वैल्यू जोड़नी होगी और उन्हें फिर से निर्यात करना होगा।
इसके लिए व्यापार में खुलापन चाहिए। मुझे चिंता है कि कई लोग आत्मनिर्भरता के मंत्र काे लेकर, 1970 की प्रोटेक्टनिस्ट फिलोसोफी की ओर फिर जाना चाहते हैं। यह बहुत बुरा होगा। हम वह दृश्य पहले देख चुके हैं और वह विनाशकारी थी।
सवाल: भारत वैश्विक मैन्यूफेक्चरिंग हब बन सकता है? इसकी कितनी संभावना है, क्या करना होगा?
यह संभव है कि कुछ ग्लोबल व्यवसाय चीन से दूर जाना चाहेंगे, सिर्फ इसलिए कि वह नहीं चाहेंगे कि अपने सारे अंडे एक ही बास्केट में रख दें। हालांकि, हम इससे नहीं कह सकते कि हम ग्लोबल मैन्यूफैक्चरिंग हब बन जाएंगे, इसके लिए हमें और कॉम्पिटेटिव बनना पड़ेगा।
हाल के वर्षों में चीन से दूर जाने वाले निवेश को आकर्षित करने में वियतनाम और बांग्लादेश ज्यादा सफल रहे हैं। निश्चित ही हमें ऐसे निवेश को आकर्षित करने का प्रयास करना चाहिए, लेकिन इसके लिए हमें प्रतिस्पर्धात्मक दृष्टि से बेहतर होने की दिशा में सुधार लाने होंगे। इसके तहत हमें बुनियादी ढांचे की गुणवत्ता के साथ लॉजिस्टिक्स व प्रक्रियाओं में सुधार लाने होंगे।
हमारी कर प्रणाली को भी निवेशकों के अधिक अनुकूल बनाना होगा और उसे अचानक होने वाले बदलाव व व्याख्याओं से मुक्त रखना होगा। निवेशकों को यह प्रमुख समस्या लगती है। हमें विश्व व्यापार के प्रति अधिक खुलापन रखना होगा, जबकि पिछले कुछ वर्षों में हम अधिक संरक्षणवादी हुए हैं। उदाहरण के लिए आरसीईपी समझौते पर हस्ताक्षर करने से हमारे इंकार ने बहुत नकारात्मक संकेत दिए हैं। निश्चित ही यह ग्लोबल सप्लाई चैन का हिस्सा बनने की इच्छा से मेल नहीं खाता है।
सवाल: अर्थव्यवस्था को मौजूदा संकट से उबारने के लिए देश को कौन-से कदम उठाने चाहिए?
जीडीपी का करीब आधा हिस्सा रेड जोन से आता है और वहां लॉकडाउन खत्म किए बिना सामान्य स्थित बहाल नहीं हो सकती। इसके बाद भी विमानन, रेस्त्रां-होटल और अनौपचारिक क्षेत्र के मजदूरों पर निर्भर उद्योगों में गतिविधि सामान्य से कम ही रहेगी। प्रवासी मजदूरों के लौटने में वक्त लगेगा। इस वर्ष नेगेटिव ग्रोथ के बाद अगले वर्ष 2021-22 में जीडीपी बढ़ेगी। लेकिन 5-6 फीसदी बढ़ भी गई तो यह सिर्फ वापसी है।
चूंकि मौजूदा वर्ष में उतने ही आकार की गिरावट होगी। यह वृद्धि हमें फिर वहीं पहुंचायेगी जहां 2019-20 में थे। यदि हम वर्ष 2022-23 में 6 से 7 फीसदी वृद्धि हासिल कर पाते हैं, तो हम कह सकेंगे कि हम मौजूदा संकट से उबर चुके हैं।
उसके लिए आश्वस्त करने वाली वित्तीय स्थिति निर्मित करने, अच्छी तरह काम करने वाला बुनियादी ढांचा बनाने, जल्दी ही बड़े एनपीए दर्शाने वाले एनबीएफसी सहित बैंकिंग प्रणाली को मजबूत करने और निवेशकों व खासतौर पर विदेशी निवेशकों को आश्वस्त करने के लिए बहुत प्रयास करने होंगे। यह स्पष्ट करना होगा कि आत्मनिर्भरता के नाम से हम 1970 के दशक की संरक्षणवादी नीतियों की ओर नहीं लौट रहे हैं।
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